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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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समीक्षा की, वहीं दूसरी ओर, बौद्धों की यथार्थ स्तर पर उनमें कोई भी संबंध नहीं होने की मान्यता की धर्मोत्तर को पूर्व-पक्ष बनाकर समीक्षा की है। वे धर्मोत्तर की इस मान्यता का भी खण्डन करते हैं कि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध नहीं है। अन्त में, इसी चर्चा के आधार पर जैनों को मान्य वाच्य-वाचक-सम्बन्ध की पुष्टि करते हैं और इस संबंध में धर्मोत्तर की सभी शंकाओं का समाधान करते हैं।
शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य-सम्बन्ध और तदुत्पत्ति-सम्बन्ध की समीक्षा में जहाँ रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर के माध्यम से इन दोनों मतों की समीक्षा कर देते हैं, वहीं वाच्य-वाचक-सम्बन्ध की समीक्षा में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर को पूर्वपक्ष बनाकर तथा स्वयं उत्तरपक्ष बनकर वाच्य-वाचक-संबंध की सिद्धि कर देते हैं, क्योंकि किसी भी ग्रन्थ की रचना का प्रयोजन शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-सम्बन्ध माने बिना सिद्ध नहीं होता है।
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