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________________ 174 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा इसके प्रत्युत्तर में, बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर यह प्रश्न उठाते हैं कि फिर तो वाच्य-वाचकभावरूप संबंध सामान्य और विशेष- दोनों में रहते हैं, ऐसा मानें तो ठीक रहेगा क्या ?196 यहाँ, आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि ऐसा मानेंगे, तो प्रत्येक में जो दोष होगा, वह दोनों में कैसे नहीं होगा ? अर्थात् होगा ही। वाच्य-वाचक-संबंध को मात्र सामान्य या मात्र विशेष मानने में जो दोष होंगे, वही दोष उसे सामान्य और विशेष- दोनों मानने में भी होंगे। इस प्रकार, से तो सामान्य और विशेष- दोनों दूषित हो जाएंगे। शब्दार्थ-संबंध का विचार करते हुए बौद्धों की यह अवधारणा है कि 'शब्द विकल्प से उत्पन्न होते हैं और विकल्प शब्दों से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार, शब्द और विकल्प में परस्पर कार्य-कारण-भाव है, परन्तु शब्द अर्थ का स्पर्श नहीं करते हैं, क्योंकि अर्थ बाह्य-वस्तु है और शब्द का उनके साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। आचार्य रत्नप्रभ इसकी समीक्षा करते हुए कहते हैं कि शब्द और अर्थ में कार्यकारण-भाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यदि वे एक-दूसरे का स्पर्श ही नहीं करते हैं, तो फिर उनमें कार्य-कारण-भाव कैसे घटित होगा। जहाँ तक शब्द को विकल्पजन्य और विकल्प को शब्दजन्य माना जाएगा, तो वहाँ शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभाव भी घटित नहीं होगा, क्योंकि विकल्प तो कुछ भी बनाए जा सकते हैं, किन्तु शब्द और अर्थ के संबंध में एक व्यवस्था है। यदि शब्दों को विकल्पजन्य और विकल्पों को शब्दजन्य मानेंगे, तो उनमें अनियतता होगी। विकल्प स्वैर (स्वयं) कल्पित होते हैं, अतः, एक निश्चित अर्थ के वाचक नहीं हो सकते हैं, इसलिए शब्द और अर्थ के संबंध में संकेत द्वारा वाच्य-वाचक-संबंध मानना ही उचित है और इसी के आधार पर ही ग्रन्थ-रचना के प्रयोजन की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है।198 उपसंहार - इस प्रकार, हम देखते हैं कि रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि ने एक ओर बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर को माध्यम बनाकर मीमांसकों के शब्द और अर्थ के तादात्म्य-संबंध की तथा नैयायिकों के तदुत्पत्ति-संबंध की 196 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 24 197 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 24 198 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 24, 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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