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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा। जैन-न्याय के अनुसार, निर्विकल्प - दर्शन प्रत्यक्ष - ज्ञान के पूर्व स्पष्ट रूप से होता ही है। उसके प्रतिभासरूप यह प्रतीति भी असाधारण विशेष की ही होती है, सामान्य के रूप में नहीं होती। 181
यहाँ, बौद्ध - दार्शनिक धर्मोत्तर आचार्य रत्नप्रभसूरि के समक्ष यह प्रश्न उठाते हैं कि यह गाय है, यह गाय है- इस प्रकार से सामान्य रूप से गाय का ज्ञान तो होता ही है, तो फिर सामान्य का ज्ञान नहीं होता हैऐसा कैसे कहा जा सकता है ? 192
आचार्य रत्नप्रभसूरि इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आपका यह कथन भी उचित नहीं है, कारण कि शाबलेय, बाडुलेय आदि से भिन्न-भिन्न गो सामान्य का और उन गुण-धर्मों की तीव्र, तीव्रतर आदि स्थिति - विशेष से भिन्न- ऐसा सामान्य का ज्ञान तो होता नहीं है, अर्थात् अर्थ हो या शब्द, उससे विशेष का ही ज्ञान होता है, सामान्य का नहीं ।'
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बौद्ध - दार्शनिक धर्मोत्तर पुनः अपने मत की पुष्टि में कहते हैं कि शाबलेयादि जिन रूपों की प्रतीति होती है, वही तो सामान्य ज्ञान है ।'
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इसके प्रत्युत्तर में, आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध - दार्शनिक धर्मोत्तर से कहते हैं कि आप ऐसा नहीं कह सकते। इसका कारण यह है कि शाबलेय आदि प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग रूप से ही दिखाई देता है, जबकि सामान्य तो सभी व्यक्तियों में एक ही जैसा होना चाहिए । पुनः, यदि सामान्य को वाच्य - वाचकभाव का आधार मानेंगे, तो शब्द सुनकर प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि सामान्य की अर्थ-क्रिया तो मात्र स्वयं का ज्ञान कराने तक ही सीमित है और वह सामान्य ज्ञान तो शब्द के सुनते ही हो गया, तो फिर सामान्य ज्ञान की अर्थ में प्रवृत्ति कैसे होगी ?185
191 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 192 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 193 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 194 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 195 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23
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