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________________ 172 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा सामान्य में ही होता है। सामान्य ही वाच्य-वाचकभावरूप संबंध का आधार अर्थात अधिकरण बनता है, अर्थात् सामान्य में ही वाच्य-वाचकभाव बनता है, विशेष में नहीं। सामान्य नित्य होने से कालान्तर में अपना अस्तित्व बनाए रखने में समर्थ है और वही सामान्य व्यक्तिनिष्ठ होने से समस्त व्यक्तियों में अनुसरण करने में भी समर्थ है। घड़ा शब्द किसी घड़े का वाचक न होकर घट जाति के समस्त पदार्थों का वाचक है, अतः, घट शब्द सामान्य या जाति का वाचक हुआ, किन्तु रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि इस कक्ष में घड़ा है, तो यहाँ हमारा तात्पर्य यह होता है कि हम किसी घट-विशेष को इंगित कर रहे हैं। यदि शब्द सामान्य ही हैं और अर्थ विशेष ही है- ऐसा मानेंगे, तो उनमें किसी प्रकार से वाच्य वाचक-संबंध नहीं बन पाएगा। इस संबंध में रत्नाकरावतारिका में यह बताया गया है कि घट शब्द से वाच्य-वस्तु एकान्तरूप से न तो सामान्य है, न विशेष । प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है और शब्द भी सामान्य-विशेषात्मक हैं, अतः, उनमें वाच्य-वाचक-संबंध स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है। प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक होने से उसका वाचक शब्द भी सामान्य-विशेषात्मक होता है और इस प्रकार, उनमें वाच्य-वाचक-संबंध सिद्ध हो जाता है।188 ___ साथ ही, आचार्य रत्नप्रभसूरि यह भी कहते हैं कि आपका यह कथन कि शब्द सामान्य का ही वाचक है, बुद्धिमान व्यक्तियों को मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि आपके मत के अनुसार ही संसार में सामान्य नाम का तो कोई पदार्थ है ही नहीं और यदि सामान्य की सत्ता ही नहीं है, तो शब्द किसका वाचक होगा ?189 पुनः, बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर अपने पक्ष के समर्थन में कहते हैं कि जाति या सामान्य का ज्ञान, अर्थात् प्रतिभास या अनुभव (प्रतीति) का विषय होते हुए 'सामान्य है ही नहीं'- ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? सामान्य या जाति प्रतीति (प्रत्यक्ष) का विषय तो है ही।190 इसके प्रत्युत्तर में आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि सामान्य का ज्ञान मात्र प्रतीति या प्रतिभास है, तो फिर प्रतिभास के बल पर उसका 188 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि. पृ. 23 189 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 190 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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