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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 169 उत्पन्न हुए बिना अर्थ का प्रतिपादक तो बनता ही नहीं है, क्योंकि जब संकेत हो, तभी शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभाव-संबंध अर्थ का प्रतिपादक बनता है, जैसे - किसी बच्चे को संकेत के माध्यम से यह बताया जाता है कि यह गाय है, गाय श्वेत होती है, दूध देती है, चार पैर वाली होती है, उसके दो सींग एवं सास्ना होती है आदि। वह बच्चा दूसरों के द्वारा बताए गए इन संकेतों से गाय शब्द से गाय वस्तु को पहचानने लगता है। वह शब्द को सुनता है तथा उसी के साथ अर्थ को भी देखता है और उन शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को समझने लगता है। इस प्रकार, संकेत के माध्यम से शब्द और अर्थ के वाच्य-वाचक-संबंध को बताया जाता है या अभिव्यक्त किया जाता है, तभी शब्द अर्थ का प्रतिपादक बनता है।18 इस प्रकार, उत्तर-पक्ष के रूप में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर के प्रश्न का समाधान करते हैं कि शब्द और अर्थ में संकेत-संबंध से भिन्न कोई अभिव्यंज्य (वाच्य)-अभिव्यंजक (वाचक) भाव नहीं है, इसलिए संकेत से वाच्य-वाचकभाव की अभिव्यक्ति मानने के साथ ही संकेत से ही उनके वाच्य-वाचक-संबंध की उत्पत्ति भी मानना पड़ेगी। इस प्रकार, संकेत से वाच्य-वाचकभाव की अभिव्यक्ति मानने पर, वाच्य-वाचकभाव से भिन्न संकेत से ही शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध की उत्पत्ति हुई- ऐसा मानना होगा और इस प्रकार, मानने पर तो तीसरे विकल्प का जो उत्तर है, वही बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर के पूर्वपक्ष का उत्तर भी हो जाएगा।" संकेत से वाच्य-वाचकभाव को मानने वाले जैन आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर से कहते हैं कि मात्र संकेत से ही वाच्य-वाचकभावरूप संबंध उत्पन्न होता है- ऐसा एकान्त मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि यही वाच्य-वाचकभाव शब्द और धर्म के संबंधरूप धर्म का आधार है, इसलिए वाच्य-वाचकसंबंधरूप आधार से भिन्न ऐसे संकेतमात्र से वाच्य-वाचकभावरूप संबंध की उत्पत्ति घटित नहीं होती है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार, शब्द और अर्थ से वाच्य-वाचक-संबंध की 1178 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 20 179 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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