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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
इसमें प्रारंभ के दोनों पक्ष तो दूषित ही हैं, क्योंकि शब्द और अर्थ का संबंध वाच्य-वाचकभाव के आधार पर रहा हुआ होने के कारण इन दोनों स्थितियों में से, अर्थात् शब्द अथवा अर्थ किसी के भी नहीं होने पर वाच्य और वाचक-संबंध की उत्पत्ति भी संभव नहीं हो सकती है, अर्थात् शब्द और अर्थ के अभाव में वाच्य-वाचक-संबंध नहीं हो सकता है।
यदि तीसरा पक्ष यह मानें कि शब्द और अर्थ तथा उनका वाच्य-वाचक-संबंध एक ही साथ उत्पन्न होते हैं, तो फिर शब्द और अर्थ-दोनों ही उनसे भिन्न किसी अन्य कारण से उत्पन्न होते हैं- ऐसा मानना होगा ? या फिर वाच्य-वाचकभाव को, किसी अन्य कारण से उत्पन्न होता है-, ऐसा मानना होगा।
पहला विकल्प मानें, तो शब्द-संकेत को नहीं जानने वाले नारियल द्वीप में रहने वाले पुरुष को शब्दोच्चारण होने के साथ ही पदार्थ का ज्ञान हो जाना चाहिए। चूंकि इस पक्ष में वाच्य और वाचकभाव तथा शब्द और अर्थ उनके संबंध की उत्पत्ति के पूर्व कारणरूप में मौजूद हैं, इसलिए जब शब्द सुना जाता है, तब संकेत के बिना भी अर्थ का ज्ञान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है, अतः, तीसरा विकल्प उचित नहीं है।
चौथा पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि अनुक्रम से उत्पन्न होने वाले पदार्थ (अर्थ) और शब्द उस संबंध की उत्पत्ति के पूर्व अवाच्य और अवाचक ही रहेंगे, अर्थात् जब अर्थ की उत्पत्ति होगी, तब शब्द के साथ-साथ उसके वाच्य-वाचक-संबंध का भी अभाव होगा, अतः, तब तक वह अर्थ अवाच्य रहेगा और जब शब्द की उत्पत्ति होगी, तब अर्थ के साथ उसके संबंध का अभाव होगा, वह अवाचक रहेगा।"
यहाँ, शब्द और अर्थ में तदुत्पत्ति-सम्बन्ध की समीक्षा करते हुए पूर्वपक्ष के रूप में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर द्वारा पुनः यह प्रश्न उठाया गया है कि शब्द और अर्थ के मध्य वाच्य-वाचकभावरूप संबंध की उत्पत्ति शब्द के वाच्य अर्थात् अर्थ (पदार्थ) से उत्पन्न होती है, या वाचक शब्द से उत्पन्न होती है ? या वाच्य-वाचकभावरूप संबंध (पदार्थ) अर्थ और शब्ददोनों से उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि शब्द और अर्थ का वाच्य-वाचक-संबंध भी संकेतरूप वाच्य-वाचकभाव के
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176 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 20 17 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 20
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