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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा ही सहगामी रहे हैं, किन्तु जहाँ बौद्ध एकान्तवाद की समीक्षा करके या उसमें दोषों का उद्भावन करके संतुष्ट हो गए, वहीं जैनों ने उन परस्पर विरोधी अवधारणाओं के मध्य समन्वय करने का भी प्रयास किया है। दार्शनिक - समीक्षाओं के क्षेत्र में जहाँ बौद्ध नकारात्मक - भाषा का ही प्रयोग करते रहे और सभी एकान्तदृष्टियों को मिथ्या कहकर नकारते रहे, वहीं जैनों ने उन दार्शनिक-मतवादों को एकान्तरूप से मिथ्या न कहकर उनकी सापेक्षिक - सत्यता को स्वीकार करने का प्रयत्न भी किया। जैन- दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में अपने युग के सभी दार्शनिक-मतवादों को समाहित करके जहाँ एक ओर उनकी समीक्षा की है, वहीं दूसरी ओर उनमें निहित सत्यता को देखने का भी प्रयत्न किया है और सापेक्षिक रूप से उनकी सत्यता को स्वीकार भी किया है। जैन - दार्शनिक यशोविजयजी भी लिखते हैं - बौद्धानामृजु - सूत्रतोमतमभूद् वेदान्तिनां संग्रहात्, सांख्यानां तत् एवं नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः । शब्द- ब्रह्म - विदोअपि - शब्द नयतः सर्वैर्नयैर्गुम्फिता, जैनीदृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते । । * अर्थात्, बौद्धमत का विकास ऋजुसूत्र -नय के आधार पर होता है, अतः, उस नय के आधार पर उनके मत की सत्यता को सापेक्ष रूप से स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार, वेदान्त - दर्शन का आधार संग्रह नय है और उसकी सत्यता इसी दृष्टिकोण से रही हुई है। अपेक्षा- भेद से सांख्य भी नैगमनय का सहारा लेते हैं, किन्तु फिर भी वे संग्रहनय को मुख्य आधार बनाते हुए अपने मत को प्रस्तुत करते हैं। नैयायिक और वैशेषिक - दर्शनों का आधार भी नैगमनय ही है, किन्तु वे व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं करते हैं। इसी प्रकार, शब्दनय के आधार पर वैयाकरण-दर्शन खड़ा हुआ, किन्तु जैन- दर्शन की विशेषता यह है कि वह सभी नयों को स्वीकार करते हुए प्रसंगानुसार सारभूत तत्त्व को स्पष्ट कर देता है । जैन- दार्शनिकों ने अनेकान्त और अहिंसा के जिन सिद्धांतों को प्रस्तुत किया और मानव-मानव के बीच ही नहीं, समस्त प्राणी-जगत् के बीच समता का जो शंखनाद किया, यह उनकी विशिष्ट देन है। 3 'उदधृत - आगमयुग का जैन-दर्शन, पं. दलसुखभाई मालवणिया, पृ. 292 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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