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________________ 16 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा भारतीय-दर्शन और उसके किसी भी पक्ष का अध्ययन जैन दार्शनिकों और उनके दार्शनिक-ग्रन्थों की उपेक्षा करके संभव नहीं है। दर्शन के क्षेत्र में उनका परस्पर-विरोधी मतों के मध्य समन्वय का प्रयास महत्वपूर्ण है। पं. दलसुखभाई मालवणिया का कहना है कि 'चाहे दार्शनिक विवादों के अखाड़े में जैन-दार्शनिक बाद में ही उतरे हों, किन्तु एक समन्वय के रूप में उन्होंने परस्पर विरोधी मत वालों के बीच जो समन्वय का प्रयत्न किया है, वह अद्भुत है। वैदिक और बौद्ध-परम्परा के दार्शनिक-साहित्य की अपेक्षा जैनों का दार्शनिक-साहित्य न तो सांख्यादि-दर्शनों की अपेक्षा से कम है और न ही अपनी गुणवत्ता में किसी से पीछे है। 2. जैन-दर्शन के विकास के तीन युग पं. सुखलालजी ने जैन-दर्शन के विकास को निम्न तीन युगों में बाँटा है - (अ) दर्शनों के सूत्र-ग्रन्थों का युग (ब) अनेकान्तस्थापन-युग (स) न्याय-युग। पं. दलसुखलालमालवणिया ने जैन-दार्शनिक-साहित्य को उसके विकास की अपेक्षा से निम्न चार भागों में बाँटा है - आगम- युग अनेकान्तव्यवस्था- युग प्रमाणव्यवस्था-युग द. नव्यन्याय-युग। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पं. सुखलालजी जिसे दर्शन-युग कह रहे हैं, उसे ही पं. दलसुखलाल मालवणिया ने आगम-युग कहा है, क्योंकि जैन-दर्शन का प्रादुर्भाव आगम-युग में ही हो जाता है। पं. दलसुखभाई की विशेषता यह है कि उन्होंने न्याय-युग के दो विभाग किए हैं - अ. प्रमाणव्यवस्था-युग 4 (अ) जैन-दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन, पृ. 1 (ब) आगमयुग का जैन दर्शन पृ. 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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