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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
वर्गीकरण को अनुचित मानते हुए पाणिनीय - सूत्रों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि जैन और बौद्ध दर्शन परलोक और पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं, अतः, उन्हें आस्तिक की कोटि में ही माना जाए।' कालान्तर में आस्तिक और नास्तिक का अर्थ बदला और यह कहा जाने लगा कि जो वेदों की निन्दा करते हैं, या उनके प्रामाण्य को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं ( नास्तिको वेद निन्दकः) । इस आधार को लेकर जैन और बौद्धदर्शनों को नास्तिक की कोटि में डाला गया, किन्तु वैदिक - कर्मकाण्ड की समालोचना केवल जैन, बौद्ध और चार्वाकों ने ही की है, ऐसा नहीं है। उपनिषदों और गीता में भी इस वैदिक कर्मकाण्ड की और यज्ञ-याग की समालोचना हमें मिलती है। 2 क्या हम उपनिषदों को और गीता को नास्तिकों का धर्मग्रन्थ मानेंगे ? ऐसा तो कथमपि संभव नहीं है, अतः, दर्शनों का आस्तिक और नास्तिक के बीच विभाजन समुचित नहीं माना जा
सकता ।
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दूसरे, भारतीय - दर्शनों के इतिहास में जैन और बौद्ध दर्शनों का अवदान कम नहीं है । दार्शनिक चिन्तन के विकास में इन दोनों धाराओं का महत्वपूर्ण अवदान रहा है । जहाँ बौद्धों ने नैयायिकों और मीमांसकों के अनेक सिद्धान्तों की समीक्षा करके उनका खंडन किया है, वहीं जैन- दार्शनिकों ने परस्पर विरोधी अनेक दार्शनिक अवधारणाओं में अपनी अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर समन्वय का प्रयत्न किया है। इस प्रकार, भारतीय-दर्शन की यात्रा में पक्ष, प्रतिपक्ष और समन्वय की इस प्रक्रिया के द्वारा दार्शनिक - चिन्तन का जो विकास हुआ है, उसमें जैन और बौद्धों का महत्वपूर्ण अवदान है।
जहाँ तक दार्शनिक- विवादों के मध्य समन्वय के सूत्र प्रस्तुत कर उनका समाधान देने का प्रश्न है, भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन- दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जिसने दर्शन के क्षेत्र में अनेक विरोधी - मान्यताओं के मध्य समन्वय के प्रयत्न किए हैं। बौद्धों ने यद्यपि विभिन्न- दार्शनिक एकांत मतों की समीक्षा तो की, किन्तु वे उन्हें केवल एकांगी कहकर रह गए। एकान्तवाद की समीक्षा में जैन और बौद्ध- दोनों
1 जैन-दर्शन- पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य भूमिका - डॉ. मंगलचंद शास्त्री, पृ. 15 2 (अ) प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा, अष्टादशोक्तमवरंयेषु कर्म ।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्तिः । । मुण्डकोपनिषद 1 / 2/7 (ब) श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थज्ञाने परिसमाप्यते ।। 4 | 33 || गीता
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