________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
इससे ध्वन्यात्मकता का दोष उत्पन्न होगा। जैसे ढोल, तबला, वीणा, सितार, मृदंग आदि से उत्पन्न ध्वनि से एक जैसी संगीत की स्वर - लहरी निकलती है, वैसे ही अनेक शब्दों के उच्चारण से तीनों लोक में एक जैसी ही ध्वनि होगी । ढोल, तबला, सितार, वीणा, मृदंग आदि की भिन्न-भिन्न ध्वनियाँ मिलकर भी भिन्न-भिन्न वाच्यार्थ का बोध नहीं करा सकती हैं, सभी ध्वनियों का अर्थ एक जैसा निकलेगा । इस प्रकार, यदि शब्द और अर्थ में अभेद है, या किसी प्रकार का भेद नहीं है, तो यह मत उचित नहीं है 1160
पुनः आचार्य रत्नप्रभसूरि मीमांसकों से यह प्रश्न करते हैं कि यदि आप शब्द और अर्थ में अभेद मानेंगे, अर्थात् शब्द को ही अर्थरूप मानेंगे, या अर्थ को ही शब्दरूप मानेंगे, तो अश्व कहते ही दौड़ने की अनुभूति होना चाहिए, नदी कहते ही पानी बहना चाहिए, मोदक कहते ही स्वाद की अनुभूति होना चाहिए । इसी प्रकार, भूतकालीन वर्द्धमान और भविष्यकालीन पद्मनाभ- इन दोनों के शब्दोच्चारण से ही इन दोनों की उपलब्धि हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा असंभव है । यदि हमने वर्द्धमान का नामोच्चारण किया है, या पद्मनाभ का नामोच्चारण किया है, तो दोनों के वाच्यार्थ भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा बोध नहीं होगा । शब्दों के वाच्यार्थ के भेद के अभाव में मात्र भिन्न-भिन्न नामोच्चारण भी असंगत होगा। यदि 'सीसम' शब्द उसके वाच्यार्थ, अर्थात् सीसम के वृक्ष के स्वगुणों के बिना भी रह सकता हो, तो क्या वह वृक्ष - विशेष कहा जा सकेगा ? अर्थात् नहीं । सीसम - इस शब्द का होना तभी सार्थक है, जब वह अपने अर्थ, अर्थात् सीसम वृक्ष का बोध कराता हो । यदि शब्द और अर्थ में कोई भेद नहीं है, तो फिर सीसम शब्द के उच्चारण से सीसम - वृक्ष की उपलब्धि हो जाना चाहिए। 161
I
आचार्य रत्नप्रभसूरि तादात्म्य - संबंध को लेकर पुनः यह आपत्ति करते हैं कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य - संबंध प्रत्यक्ष - प्रमाण से भी सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है, जबकि घट, पट, कलश, कुंभ आदि पृथ्वीतल के ऊपर रहने वाले पदार्थ चक्षुइन्द्रिय या स्पर्शनेन्द्रिय के विषय हैं, अतः ये पदार्थ श्रोत्रेन्द्रिय के विषय नहीं बन सकते हैं । शब्दोच्चारण पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती है। दृश्य पदार्थ
160 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 17
रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 17
161
163
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org