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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
नहीं है, क्योंकि यदि शब्द और अर्थ एक-दूसरे से असंबद्ध हैं- ऐसा मानेंगे, तो फिर उनमें वाच्य-वाचकभाव भी सिद्ध नहीं होगा और शब्द एवं अर्थ में वाच्य-वाचकभाव को नहीं मानने पर ग्रन्थ-लेखन का प्रयत्न भी निरर्थक होगा। यदि शब्द और अर्थ परस्पर सम्बद्ध या संबंधित हैं- ऐसा मानते हैं, तो फिर उनमें कौनसा संबंध है ? क्या तादात्म्य-संबंध है ? या तदुत्पत्ति-संबंध है ? या वाच्य-वाचक-संबंध है ?150
शब्दार्थ-सम्बन्ध को लेकर रत्नाकरावतारिका में चार प्रकार की मान्यताएँ उल्लेखित हैं
1. तादात्म्य-सम्बन्ध 2. तदुत्पत्ति-सम्बन्ध 3. वाच्य-वाचक-सम्बन्ध
4. कोई सम्बन्ध नहीं या अन्यथापोह मीमांसक के तादात्म्य-सम्बन्ध की समीक्षा
सर्वप्रथम मीमांसक शब्द और अर्थ में तादात्म्य-संबंध स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि शब्द और अर्थ एक-दूसरे से अभिन्न है। जो शब्द है, वही अर्थ है तथा जो अर्थ है, वही शब्द है। दोनों में अभिन्नता है, अर्थात् शब्द और अर्थ में किसी प्रकार का भेद नहीं है।'59 आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा तादात्म्य-संबंध की आलोचना
इसका खण्डन करते हुए आचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि दोनों में तादात्म्य या अभेद है, तो दोनों अलग-अलग नहीं होंगे। सम्बन्ध दो भिन्न वस्तुओं में होता है, अतः, ऐसी स्थिति में उनमें कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा। दूसरे, यदि दोनों अभिन्न हैं, तो ऐसी स्थिति में कोई भी शब्द अपने निश्चित वाच्यार्थ का बोध नहीं करा सकेगा। यदि हम भिन्न-भिन्न वस्तुओं के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का उच्चारण करते हैं, जैसे - घट, पट, गज, अश्व आदि, तो इन शब्दों से भिन्न-भिन्न अर्थों की प्रतीति नहीं होगी। इस प्रकार, सभी शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के वाचक न होकर एक ही अर्थ, अर्थात् वस्तु के वाचक होंगे और शब्द मात्र ध्वनिरूप ही होंगे।
158 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 16 159 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 17
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