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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
उपसंहार -
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्ध-अनात्मवाद तार्किक-दृष्टि से समीचीन है, किन्तु बौद्ध-अनात्मवाद का अर्थ आत्मा नहीं है- यह मानना उचित नहीं है। भगवान बुद्ध ने 'कूटस्थनित्य आत्मा का या अपरिणामी (अपरिवर्तनशील) आत्मा का निषेध किया था। वे परिणामी या तरल आत्मा को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार, आत्मा सतत परिवर्तनशील है। जिन्हें जैन-दर्शन आत्मपर्याय कहता है, वही बौद्ध-दर्शन की चित्तसन्तति है। जैन-दर्शन के समान बौद्ध-दर्शन भी यह तो मानता है कि पर्याय से पृथक द्रव्य की सत्ता नहीं है, उसी को आधार बनाकर बौद्ध-दर्शन यह कहता है कि चित्त-पर्यायों अर्थात् चैत्तसिक अवस्थाओं से भिन्न आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है। उनके दर्शन में परिवर्तनशील चित्त-धारा से पृथक् कोई आत्मा नहीं है। यहाँ हम यह देखते हैं कि बौद्ध-दार्शनिकों की 'आत्मा' की अवधारणा को जैन-दार्शनिकों ने उसके मूल अर्थ में ग्रहण न कर आत्मोच्छेदवाद या अनात्मवाद के रूप में ग्रहण किया, जो उचित नहीं था। जैन और बौद्ध-दर्शन में मात्र अन्तर यह है कि बौद्धों ने जिसे चित्त-धारा कहा, उसे जैनों ने आत्मपर्याय माना। जैन-दर्शन आत्मा को नित्यानित्य मानता है, जबकि बौद्ध दर्शन उसे सतत परिवर्तनशील मानकर अनित्य मानता है, यही दोनों का अंतर है। रत्नप्रभसरि ने उसे आत्म-निषेध के अर्थ में जो ग्रहण किया, वह उचित नहीं है।
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