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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 159 अन्त में, जैनाचार्य रत्नप्रभसरि बौद्धों से कहते हैं कि आप बौद्धों द्वारा मान्य नैरात्म्य-दर्शन में चैतन्य (आत्म) तत्त्व जैसा कोई स्थायी (नित्य) तत्त्व तो है नहीं, जिसके कारण से परलोक में सुखी बनने के लिए कोई पुरुषार्थ किया जा सके। तात्पर्य यह है कि आपके दर्शन में मात्र ज्ञानक्षण (चित्त-पर्याय या चित्तक्षणों की धारा) ही है, नित्य (ध्रुव) आत्मतत्त्व नाम का कोई पदार्थ ही नहीं है, जो उन चित्तक्षणों को एक-दूसरे से जोड़कर रख सके। क्या मात्र एक समय रहने वाला क्षण-जीवी प्रथम ज्ञानक्षण या चित्तक्षण उत्तरोत्तर होने वाले ज्ञानक्षण को सुखी बनाने के लिए कोई प्रयत्न करेगा ? अर्थात् कदापि नहीं करेगा, जबकि देखा यह जाता है कि यदि कोई नित्य देवदत्त दुःखी होगा, तो स्वयं के दुःख को दूर करने के लिए तथा सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं ही पुरुषार्थ करेगा, किन्तु वह किसी अन्य यज्ञदत्त के दुःख को दूर करने का एवं उसको सुखी बनाने का कोई प्रयत्न करे। इस प्रकार, से, कोई भी एक चित्तक्षण उत्तरोत्तर होने वाले चित्तक्षणों के सुख के लिए तथा उनके दुःखों का नाश करने के लिए प्रयत्न करे- यह कथन उचित नहीं लगता है। प्रथम चेतनाक्षण का जो भी सुख या दुःख है, वह तो प्रथम चेतनाक्षण के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाता है। प्रथम क्षण और उसका सुख-दुःख- ये दोनों ही क्षणमात्रवर्ती होने से दूसरे क्षण में तो नष्ट होने वाला ही है, तो उस दुःख को नष्ट करने के लिए और सुख को प्राप्त करने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयत्न की तो कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है।155 जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि आगे कहते हैं- इस प्रकार, से आप बौद्ध इन दोषों को दूर करने के लिए बार-बार जो "संतान' का प्रयोग करते हैं, तो आपका यह संतान भी कोई वास्तविक पदार्थ तो नहीं है, जिसका कथन हम पूर्व में कर चुके हैं। दूसरे, यदि कदाचित् आप संतान को वास्तविक पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं, तो इसका तात्पर्य तो यही होगा कि अन्ततः तो आपने हमारे परिणामी-नित्य-चैतन्य तत्त्व आत्मतत्त्व को ही स्वीकार कर लिया है, अतः, अन्त में जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि इस प्रकार, से बौद्धों के अनात्मवाद और चार्वाक के अनित्य-आत्मवाद का खंडन हो जाता है तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का 'प्रमाता नित्य आत्मतत्त्व है- इसकी सिद्धि हो जाती है। 58 155 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 254 156 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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