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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा तो चमड़े के समान अनित्य कहलाएगी। हम जैन तो आपके कथन का विरोध, मात्र आपके एकान्त-अनित्यता या क्षणिकता के आग्रह को लेकर करते हैं। आप बौद्धों को यह ज्ञात रहे कि जैन-दर्शन एकान्तवाद का विरोधी है तथा अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) का पक्षधर है। अनेकान्तवाद के सहारे से 'कथंचित्-नित्यता' और 'कथंचित्-अनित्यता' को स्वीकार करते हैं। हम यह नहीं कहते कि आत्मा एकान्त-अनित्य है। हम तो यह कहते हैं कि आत्मा कथंचित्-नित्य भी है और कथंचित्-अनित्य भी।152
दूसरे, आप बौद्धों ने हम पर यह भी आरोप लगाया कि यदि आप आत्मा के नित्यत्व को स्वीकार करेंगे, तो अहंकार और ममकार, अर्थात् 'मैं' और 'मेरेपन' के आग्रह से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी, किन्तु हमारे पर लगाया गया आपका यह दोष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जिन्होंने सांसारिक भोगों का इस रूप में अनुभव कर लिया है कि ये भोग प्रारंभ में तो मनोहर लगते हैं, किन्तु अन्त में अत्यन्त दुःखदायी होते हैं, साथ ही जिन्होंने आत्यन्तिक शाश्वत सुखरूपी मोक्ष के स्वरूप को जान लिया है, उन महापुरुष के समक्ष यदि किंपाक-फल के रस से बनी हुई खीर भी आ जाए, तो वे यह जानते हैं कि यह खाने में स्वादिष्ट, लेकिन परिणाम में मत्यु देने वाली है, ऐसी विषयुक्त खीर के प्रति जैसे उन्हें ममत्व नहीं होता है, वैसे ही स्वयं की देह के प्रति भी ममत्व नहीं होता है, तो फिर उन्हें 'मैं और 'मेरा की ग्रन्थि कैसे उत्पन्न होगी ? वे तो मात्र मोक्ष के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले एवं उसके हेतु सदाचरण करने वाले होते हैं।
अतः, यदि आप बौद्ध आत्मतत्त्व को कथंचित्-नित्य और कथंचित्-अनित्य मान लें, तो फिर आपकी मान्यता में भी किसी प्रकार का कोई भी दोष उत्पन्न नहीं होगा। 'मैं और मेरा ही मुक्ति में बाधक बनता है- ऐसा कहकर आत्मा को अनित्य ही मानना चाहिए, जिससे 'नैरात्म्य-दर्शन' ही मुक्ति का प्रवेश-द्वार बन सके इत्यादि आपके कथन आग्रहपूर्ण हैं, इन्हें आपको छोड़ना होगा, अन्यथा सन्ततिवाद भी निर्दोष नहीं रह पाएगा, वह खण्डित हो जाएगा।
152 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 252, 253 153 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 252, 253 154 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 253
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