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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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जैसा कोई तत्त्व ही नहीं हैं- ऐसा दर्शन) ही मुक्ति का प्रवेश-द्वार सिद्ध होगा। अहंकार और ममकार की ग्रन्थि जब तक रहेगी आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति संभव ही नहीं होगी, अतः, आप जैन आत्मद्रव्य को मानने का आग्रह छोड़ें तथा अहंकार और ममकार की ग्रन्थि को समाप्त कर निर्वाण-सुख को प्राप्त करें।150
जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसरि बौद्धों की समीक्षा करते हए कहते हैं कि आप क्षणिकवाद से बचने के लिए सन्तानवाद का सहारा लेते हैं, किन्तु आपका सन्तानवाद भी घटित नहीं होता है, क्योंकि संतान नाम का कोई तत्त्व ही नहीं है, जो कार्य-कारण-भाव की व्यवस्था कर सके। जिन चेतनाक्षणों को आप सतत प्रवाहशील कहते हैं, वे ज्ञानक्षण या चेतनाक्षण (चित्त-पर्यायें) तो एकान्तरूप से भिन्न-भिन्न हैं। यह कैसे मानें कि पूर्वक्षण की चित्त-पर्याय ने अपना संस्कार उत्तरक्षण की चित्त-पर्याय को दे दिया है। यह ठीक है कि चित्त-पर्याय एक जैसी नहीं होती है। बदलती हुई चित्त-पर्यायों को हम भी तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उन बदलती हुई चित्त-पर्यायों के बीच भी कोई आत्मद्रव्य रहा हुआ है, जो उन सबको एक-दूसरे से अक्षुण्ण बनाए रखता है- ऐसा मानते हैं। कठिनाई यह है कि आप बौद्ध आत्मा को ही स्वीकार नहीं करते हैं, बिना आत्मतत्त्व को स्वीकार किए वह कौनसा तत्त्व है, जो इन चेतनाक्षणों को एक-दूसरे से जोड़कर रखता है, जिससे आपका सन्तानवाद भी सिद्ध हो सके। चेतनाक्षणरूपी भिन्न-भिन्न मोती के दानों को एक माला का रूप देने वाला आत्मतत्त्वरूपी धागा ही है, जो सब चित्तक्षण या चित्त-पर्यायरूपी मोतियों को एक सूत्र (धागे) में पिरोकर उन्हें कार्य-कारण-भावरूप से जोड़ने का कार्य करता है। अतः, दो चित्तक्षणों या चित्तपर्यायों के बीच कोई उपादान-कारणरूप तत्त्व है, जिसे हम आत्मतत्त्व कहते हैं, वही इन चित्तक्षणों या चित्तपर्यायों को परस्पर संबंधित करता है। आप बौद्ध पर्यायों (चित्तक्षणों) को तो स्वीकार करते हैं, किन्तु आत्मद्रव्य को स्वीकार नहीं करते हैं, जिससे आपका संततिवाद खंडित हो जाता है।
पुनः, जैन बौद्धों से कहते हैं- आपने हम पर यह आरोप लगाया है कि सुख-दुःख आदि अवस्थाओं के कारण आत्मा में विकार (परिवर्तन) उत्पन्न होता है, तो आत्मा नित्य कैसे मानी जाएगी ? वह विकारी आत्मा
150 रत्नाकरावतारिका भाग, III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 251, 252 151 रत्नाकरावतारिका भाग, III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 252
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