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________________ 156 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा स्पष्ट है कि सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि विकार आत्मा में जन्म के साथ ही पाए जाते हैं, ऐसी स्थिति में विकारी आत्मा तो नित्य हो नहीं सकती। विकारी आत्मा को तो अनित्य ही मानना पड़ेगा, उदाहरणस्वरूप- चर्म अनित्य है। वह अनित्य चर्म वर्षा के समय में फैल जाता है और गर्मी (आतप) में सिकुड़ जाता है। सिकुड़ना और फैलना- ये दोनों परिवर्तन चमड़े की अनित्यता के कारण होते हैं। चमड़े को यदि नित्य मान लिया जाए, तो यह परिर्वतन कदापि संभव नहीं होगा। इसी प्रकार, अनित्य आत्मा में ही सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि विभिन्न प्रकार की अवस्थाएं होती हैं। जिसमें विकार उत्पन्न हो, जिसमें परिवर्तन होता हो, उसे नित्य कैसे कहा जा सकता है ? नित्य आत्मा को तो पूर्णरूपेण निर्विकारी ही होना चाहिए। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल सुख-दुःखरूप में मिले या न मिले, नित्य आत्मा को तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। न तो पुण्योदय के होने पर आत्मा सुख-दुःख का अनुभव करेगी और न पापोदय होने पर दुःख का अनुभव करेगी। दोनों अवस्थाओं में नित्य अविकारी आत्मा पर तो कोई भी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रकार, तो, कर्मफल को भी निष्फल हो जाना चाहिए।148 शास्त्रों में भी उल्लेख मिलता है- चाहे वर्षा हो, चाहे गर्मी, आकाश को तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि आकाश नित्य है, किन्तु इसके विपरीत, चर्म आदि जो अनित्य वस्तुएँ हैं, उन पर वर्षा और गर्मी का प्रभाव होता है, क्योंकि चमड़ा अनित्य होने के कारण परिवर्तनशील भी है। फलतः, यदि आप आत्मा को चमड़े के समान परिवर्तनशील मानेंगे, तो आत्मा अनित्यता की कोटि में आएगी और यदि आकाश-पुष्प के समान अपरिवर्तनशील मानेंगे, तो आत्मा नित्यता की कोटि में आएगी, जिससे कर्म और कर्मफल निष्फल हो जाएंगे। बौद्ध जैनों से कहते हैं कि आत्मा को नित्य-द्रव्य मानने में कर्मों की निष्फलता और अनित्य-द्रव्य मानने में अकृतागम, कृतप्रणाश आदि दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए आप जैनों से निवेदन है कि 'आत्मा नामक एक तत्त्व है- इस आग्रह का त्याग करें। 'आत्मा है- इस मोह का त्याग होने पर मेरेपन का भी त्याग हो जाएगा। 'मैं भी नहीं और 'मेरा भी कुछ नहींऐसी अहंकार और ममकार ग्रन्थि का नाश होने पर नैरात्म्य-दर्शन (आत्मा 148 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 251 149 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 251 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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