SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा सर्वथा नष्ट होने वाला होने से उसके फल का उपभोग तो प्रथम ज्ञान को मिलने वाला नहीं है, अर्थात् प्रथम ज्ञानक्षण या चेतनाक्षण को उसकी धार्मिक-क्रिया का फल मिलता नहीं है, अतः यह कृतप्रणाश हुआ तथा उत्तरज्ञानक्षण या चेतनाक्षण को प्रथम ज्ञानक्षण का फल मिलता है, अतः, यह अकृतागम हुआ, क्योंकि उत्तरज्ञान - क्षण ने तो कुछ भी धार्मिक - अनुष्ठान किया ही नहीं था, फिर भी उसको फल मिल रहा है। वस्तुस्थिति यह बनेगी कि प्रथम ज्ञानक्षण को कृतकर्म का फल नहीं मिलने के कारण कृतप्रणाश का दोष होगा तथा उत्तरक्षण को बिना कर्म किए फल मिलने के कारण अकृतागम का दोष उत्पन्न होगा । 146 बौद्ध इसके उत्तर में बौद्ध- दार्शनिक कहते हैं कि हमारे क्षणिकवाद के सिद्धांत में आपने जो कृतप्रणाश और अकृतागम के दोष दिखाए हैं, वे दोनों दोष हमारे मत में लागू ही नहीं होते हैं। यह ठीक है कि हमारे मत में कर्त्ता चेतनाक्षण कोई होगा और भोक्ता चेतनाक्षण कोई अन्य, किन्तु हमने तो यह सिद्धांत प्रस्तुत ही नहीं किया है कि वे परस्पर भिन्न-भिन्न ही हैं। हम तो यह कहते हैं कि कर्त्ता और भोक्ता चेतनाक्षणों का नियामक तत्त्व तो उनका कार्य-कारण- भाव है और कार्य कारण-भाव की अपेक्षा से परस्पर सम्बद्ध है। ज्ञानक्षण या चेतनाक्षण के अंदर रहा हुआ यह कार्य-कारण-भाव तो प्रवाहरूप से अनादिकालीन है। इसमें पूर्वक्षण अपना संस्कार उत्तरक्षण को दे जाता है। इसी को हम सन्तानवाद ( सन्तान) कहते हैं और इसी सन्तानवाद से सारा व्यवहार चलता है। प्रथम क्षण में चित्त ने जो भी धार्मिक क्रिया या व्यवहार किया है, उसका फल कार्यरूप में उसके ही उत्तरक्षण को प्राप्त होता है, किन्तु सन्तानान्तरवर्ती अन्य चित्तक्षण को उसका फल प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यदि आत्मा को अनित्य (सर्वथा क्षणिक) भी माना जाए, तो भी कार्य-कारण- भाव ही नियामक (व्यवस्था करने वाला) होने के कारण अकृतागम या कृतप्रणाश - दोष नहीं आता है । पूर्वक्षण उत्तरक्षण से असंबंधित नहीं है । दोनों एक-दूसरे से संबंधित होने के कारण हमारा मत निर्दोष ही है । 147 - पुनः, बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि इसके विपरीत यदि आप जैन आत्मा को नित्य मानते हैं, तो नित्य अर्थात् अपरिवर्तनशील आत्मा में तो किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न ही नहीं हो सकता है, जबकि यह तो 146 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 250 147 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 251 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy