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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
उपादान-कारण होता है। इस प्रकार, सजातीय और विजातीय– दोनों प्रकार के उपादान-कारणों से कार्योत्पत्ति होती है - ऐसा हम बौद्धों को स्वीकार्य है, अतः, हमारे मत में कोई भी दोष लागू नहीं होता है।
जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि आप बौद्ध विजातीय-तत्त्व को भी उपादान-कारण मानेंगे, तो फिर तो किसी से भी, कुछ भी उत्पन्न हो सकता है- यह मानना होगा। इससे आपके सन्तानवाद की व्यवस्था भी नहीं हो पाएगी। अच्छा आप यह बताइए कि यदि आप विजातीय उपादान से भी कार्योत्पत्ति मानते हैं, तो फिर आपको गर्भ में होने वाले चैतन्य का उपादान-कारण भी गर्भ में बने हुए पौगलिक-शरीर (विजातीय तत्त्व) को ही मान लेना चाहिए। फिर ऐसा सिद्धांत क्यों प्रस्तुत करते हैं कि उत्तरक्षणवर्ती चेतना का उपादान कारण पूर्वक्षणवर्ती चेतना ही है, अर्थात् पूर्वभव के चैतन्य के कारण उत्तर-क्षणवर्ती चैतन्य का जन्म हुआ है। तात्पर्य यह है कि विजातीय उपादान से भी यदि कार्योत्पत्ति हो जाती है, तो क्यों न आप गर्भ में ही पंचमहाभूतों के शरीर से ही चैतन्य की उत्पत्ति मान लेते हो ? क्योंकि आप बौद्ध-दार्शनिक तो चाहे किसी भी सजातीय और विजातीय तत्त्व को ही कारण मानते हैं। इसके विपरीत, यदि आप सजातीय को ही उपादान-कारण मानने का आग्रह रखते हैं, तो फिर धुएँ और शब्द आदि को भी अनादिकालीन किसी सजातीय कारण को ही "संतान' सिद्ध करना पडेगा, जबकि पूर्वकालवी "संतान' तो किसी को भी दिखाई नहीं देती है। इसी प्रकार, यदि उनमें उपादान-उपादेय भाव मानेंगे, तो भी संतानवाद सिद्ध नहीं होने के कारण स्मृति और प्रत्यभिज्ञा आदि की व्यवस्था भी परवादियों के मत में घटित नहीं होगी। दूसरे, परलोक में जाने वाले आत्मतत्त्व नामक किसी भी पदार्थ के संभावित न होने से परलोक एवं पुनर्जन्म का अभाव मानना पड़ेगा। इस प्रकार, पुनर्जन्म का अभाव होने से स्मृति और प्रत्यभिज्ञा के अभाव की आपत्ति परवादियों के मत में उत्पन्न होगी। 45
पुनः, जैनाचार्य कहते हैं कि कदाचित्-ज्ञान की क्षणपंरपरा को मानने के कारण आप किसी भी प्रकार से यदि, परलोक (पुनर्जन्म) हैऐसा मानते हैं, तो फिर आपके सिद्धान्त में अकृतागम और कृतप्रणाश - ये दो प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं, जिनको आप कैसे दूर कर पाएंगे ? क्योंकि प्रथम क्षण में जो धार्मिक अनुष्ठान हुआ, वह प्रथम ज्ञानक्षण तो
145 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 250
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