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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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दूसरे, 'ब्राह्मण' और 'प्रदीप' आदि में जैसे समान जाति और कार्य-कारण-भाव होने से संतान शब्द का यदि व्यवहार मानेंगे, तो फिर जहाँ पर समान जाति नहीं होगी, वहाँ संतान शब्द का प्रयोग भी उचित नहीं होगा, यथा- धुआँ यद्यपि अग्नि से उत्पन्न होता है, किन्तु फिर भी दोनों समान जाति के नहीं होने के कारण वहां संतान शब्द का व्यवहार नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि अग्नि और धुएँ में कार्य-कारण-भाव होते हुए भी समान जाति नहीं है तथा इसी प्रकार, बादल की गर्जना, वीणा-मदंग का संगीत आदि एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण या समान जाति के नहीं होने के कारण आप बौद्धों के अनुसार, इन ध्वनियों की उत्पत्ति बिना उपादान-कारण के ही मानना पड़ेंगी। परिणामस्वरूप, धुएँ और अग्नि में अनादिकाल से कार्य-कारण-संबंध या विभिन्न ध्वनियों की सजातीयता कहना संभव नहीं होगा। यदि आप बौद्ध-दार्शनिक बिना उपादान–कारण के ही धुएँ की और शब्दादि की उत्पत्ति मानेंगे, तो फिर आपको इसी प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति भी आत्मतत्त्व (उपादान-कारण) के बिना ही गर्भादि में मान लेना चाहिए। ऐसी स्थिति में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म- दोनों का अभाव हो जाएगा। यदि आप पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को नहीं मानेंगे, तो आपके शास्त्र में बुद्ध के बारे में जो यह उल्लेख है, "अब से इक्याणु भव पूर्व में जो हिंसा की थी, उसी पाप के कारण, आज मेरे पाँव में कांटे चुभ गए हैं- इस कथन का क्या होगा ? यदि आप परलोक को नहीं मानेंगे, तो फिर निर्वाण (मोक्ष) भी निरर्थक हो जाएगा और मोक्ष के लिए की गई साधना आदि भी व्यर्थ सिद्ध होंगे। इस प्रकार, आप बौद्ध कईं दोषों से घिर जाएंगे।
बौद्ध - उपर्यक्त दोषों से बचने के लिए बौद्ध जैनों से कहते हैं कि धुएँ एवं अग्नि में और मेघ के गर्जारव और वीणा के संगीत में चाहे क्रमशः उपादान-कारण-भाव या समान जातीयता न हो, किन्तु हम बौद्ध तो विजातीय कारण से भी किसी का उत्पन्न होना मान लेते हैं, किन्तु बिना उपादान-कारण के उत्पत्ति होना तो संभव ही नहीं है। हम बौद्ध भी उत्पत्ति तो उपादान-कारण से होना ही मानते हैं, चाहे वह उत्पत्ति का उपादान-कारण विजातीय ही क्यों न हो, उसका सजातीय होना ही जरूरी नहीं है, विजातीय से भी कार्योत्पत्ति तो हो जाती है। इस प्रकार, घट आदि में सजातीय उपादान-कारण तथा धुआँ शब्द आदि में विजातीय
144 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 248, 249
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