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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा जैन - पुनः, जैन बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि दो पदार्थों के अत्यन्त भिन्न होने पर भी जहाँ उनकी जाति समान हो, तो वहाँ पर भी कार्य-कारण-भाव नहीं होते हुए भी संतान शब्द का व्यवहार होता है, जैसे- यह ब्राह्मण की संतान है। यहाँ पर ब्राह्मण पिता और ब्राह्मण पुत्र, यद्यपि ये दोनों अत्यन्त भिन्न हैं, परन्तु ब्राह्मणत्व की समानता होने से, अर्थात् समान जाति वाले होने से कार्य-कारण-भाव नहीं होने पर भी, यह ब्राह्मण की संतान है, यह क्षत्रिय की संतान है- ऐसा लोक में व्यवहार होता है। वस्तुतः, सन्तान शब्द का प्रयोग जाति के आधार पर होता है, कार्य-कारण-भाव के आधार पर नहीं होता है। उसी प्रकार, हम जैन भी, यह शब्द-संतान है, यह प्रदीप-संतान है- ऐसा संतान शब्द का व्यवहार शब्द और प्रदीपादि में करते ही हैं। वक्ता के मुख से निकले हुए शब्द श्रोता के कान में एक के बाद एक शब्दों में भिन्नता होते हए भी एक जातिरूप समानता होने से, अथवा उनमें कार्य-कारण-भाव के होने से, यह अमुक शब्द की परंपरा है, या यह अमुक दीपक की परंपरा है- ऐसा व्यवहार होता है, क्योंकि दीपक में एक के बाद एक नई लौ जलती रहती है। इस प्रकार, से, हम जैन अत्यन्त भिन्न ऐसे पदार्थों (भावों) में भी सजातीयता के कारण संतान शब्द का प्रयोग करते हैं।
पुनः, जैन बौद्धों से कहते हैं कि जिस प्रकार हमारे जैन-दर्शन में संतान शब्द का अर्थ सजातीय है, उसी प्रकार यदि आप बौद्धों को भी सजातीय के अर्थ में संतान शब्द का व्यवहार इष्ट हो, तो फिर गुरु और शिष्य के मध्य भी क्यों न संतान-भाव सिद्ध होगा, अर्थात् गुरु और शिष्य के मध्य भी संतान-भाव रहा हुआ है- ऐसा मानना होगा, क्योंकि दोनों की बुद्धि में सजातीयता होने के साथ-साथ उन बुद्धियों में कार्य-कारण-भाव भी रहा हुआ है। शिष्य अपनी बुद्धि से भूतकाल में हुए ज्ञान को वर्तमान में भी जान लेता है अर्थात् शिष्य को भूतकाल में गुरु द्वारा सिखाई बातों की स्मृति वर्तमानकाल में बनी रहती है, अतः, गुरु और शिष्य में बुद्धित्व की समानता और कार्य-कारण-भाव होना चाहिए। गुरु और शिष्य में जब संतान-भाव है, तो फिर गुरु की स्मृति शिष्य में भी आ जाना चाहिए। पूर्वकाल के संस्कार जब वर्तमान-काल में आते हैं, तो फिर गुरु के संस्कार शिष्य में आ जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है।143
142 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 247. 248 143 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 248
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