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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
विभाजन भी कार्य का कारण से कथंचित् - तादात्म्य और कथंचित्-भेद माने बिना संभव ही नहीं होगा। 139
बौद्ध इस पर बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि नियम तो यह है कि संतान का जनक होता है, वह उपादान कहलाता है, यथा- मिट्टी घट (संतान) की जनक है, अतः, यह उपादान - कारण है, किन्तु कुम्हार, दंड, चक्र, चीवर आदि घट के जनक नहीं हैं, मात्र सहयोगी हैं, अतः, वे उपादान - कारण भी नहीं हैं, मात्र सहकारी - कारण हैं। इसी प्रकार, तन्तु पट का जनक होने से उपादान कारण कहलाता है, किन्तु तुरी - वेमादि पट के उत्पादन में मात्र सहयोगी होने से उपादान - कारण नहीं कहलाते हैं। इस प्रकार, हम भी उपर्युक्त आधार पर उपादान और निमित्त - कारण का भेद - सा विभाग करते हैं। 14
जैन इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं- आपका उपर्युक्त कथन युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि आपके इस कथन में तो इतरेतराश्रय (अन्योन्याश्रय) नामक दोष है। आप यह बताइए कि जैसे मिट्टी में घट उत्पन्न करने की शक्ति रही हुई है, इसलिए आप मिट्टी को जनक और घट को 'संतान मानते हैं ? या घट में अपने उपादान - कारण मृत्तिकापिण्ड से जन्यता, अर्थात् उत्पन्न होने की योग्यता रही हुई है, इसलिए घट को 'संतान' मानते हैं ? तात्पर्य यह है कि यदि उपादान - कारण अर्थात् मिट्टी, संतान अर्थात् घट को उत्पन्न करने की योग्यता रखती हो, तभी वह उपादान - कारण बन सकती है तथा घट (संतान) उपादान - कारण से उत्पन्न होने की योग्यता रखता हो, तभी घट संतान बन सकता है। इन दोनों में प्राथमिकता किसकी होगी ? यह समस्या बनी रहेगी। इन दोनों में कथंचित्- तादात्म्य - संबंध माने बिना उनमें परस्पर एक-दूसरे पर आश्रित भाव नहीं रहेगा और उनमें एकांत - अन्यत्व या भिन्नत्व होने पर तो उनमें जन्य - जनक - भाव भी सिद्ध नहीं होता, अतः, कथंचित् - अभेद ( तादात्म्य) का भाव माने बिना उपादान - उपादेय-भाव को कैसे सिद्ध करेंगे ?141
139 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 246, 247 140 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 247 141 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 247
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