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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
कार्य-कारण-भाव ही 'संतान' कहलाता है और इसी आधार पर स्मृति की सिद्धि होती है। गुरु-शिष्यादि में कार्य-कारण-भाव तो होता ही है, किन्तु वहाँ पर उपादान-उपादेय-भाव नहीं होता है, अतः, वहाँ पर स्मृति का अभाव होता है।138
जैन - इस पर, जैन-दार्शनिक रत्नप्रभ कहते हैं कि आपका यह कथन भी तो खण्डित हो जाता है। 'अविष्वकभाव' अर्थात् कथंचित-अभेद-भाव या कथंचित्-तादात्म्य-भाव के संबंध-विशेष को यदि आप नहीं मानेंगे और मात्र कारणत्व को ही मानेंगे, तो कारणत्व तो सर्वत्र समान होने पर 'यहाँ उपादान-उपादेय भाव हैं और इससे भिन्न (इतर) स्थिति में निमित्त-नैमित्तिक-भाव है- ऐसा विभाग भी नहीं होगा, अर्थात् कार्य-कारण-भाव में कथंचित-अभेद-संबंध या तादात्म्य-संबंध मानेंगे, तो ही उपादान-उपादेय-भाव भी सिद्ध होगा, अन्यथा तो एकान्तभेद में उपादान-उपादेय-भाव तो घटित नहीं होगा। यदि आप बौद्ध तादात्म्य-भाव को माने बिना ही केवल यह मानेंगे कि जहाँ-जहाँ कार्य-कारण-भाव होगा, वहाँ-वहाँ उपादान-उपादेय-भाव होगा, तो फिर उपादान-कारण के समान निमित्त-कारण में भी कारणत्व के समान होने पर वहाँ भी उपादान-उपादेय-भाव मानने की आपत्ति उत्पन्न होगी, जिससे यह उपादान-कारण है और निमित्त कारण है- ऐसा विभाग संभव नहीं होगा। फलतः, जिस प्रकार घट से कुम्हार दंड, चक्र, चीवर आदि निमित्त कारण भिन्न हैं, उसी प्रकार घट से मिट्टीरूप उपादान-कारण भी भिन्न हैं- ऐसा सिद्ध होगा, जबकि मिट्टी में तो उपादान-कारणता है और कुम्हार, दंड, चक्र, चीवर आदि में सहकारी-कारणता है- ऐसा भेद ही समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार, पट से तुरी-वेमादि बुनने के साधन भी भिन्न हैं, उसी प्रकार पट से तन्तु भी भिन्न हैं- ऐसा सिद्ध होगा, जबकि तन्तु उपादान-कारण है और तुरी-वेमादि सहकारी-कारण हैं। इस प्रकार,, उपादान-कारण और निमित्त-कारण का विभाग भी संभव नहीं होगा, जबकि उपादान-कारण कार्य से अभिन्न होता है और निमित्त-कारण या सहकारी-कारण भिन्न होता है। इस प्रकार, से तो कारणत्व मात्र समानता होने पर यह उपादान-कारण है और यह निमित्त कारण है- ऐसा
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138 रत्नाकरावतारिका, भाग IIT, रत्नप्रभसूरि, पृ. 245
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