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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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सन्तानवाद मृग-मरीचिका के समान काल्पनिक होने से इससे स्मृति संभव या सिद्ध नहीं होती है।
यदि आप सन्तान को ही पारमार्थिक-तत्त्व अर्थात् वास्तविक मानते हैं, तो यह पारमार्थिक-तत्त्व नित्य है ? या अनित्य है ? यदि इस सन्तान नामक पारमार्थिक-तत्त्व को क्षणिक कहेंगे, तो क्षण-परंपरा तो क्षणिक ही होगी, अतः, उसमें स्मृति सिद्ध नहीं होगी। स्मृति सिद्ध करने के लिए आपने संतानवाद का सहारा लिया था, किन्तु इससे भी स्मृति तो सिद्ध नहीं कर सके, क्योंकि संतान भी जब क्षणिक है, तो फिर संतान और क्षणपंरपरा- दोनों ही एक समान हो गए, तो इनमें भी स्मृति सिद्ध नहीं होगी। दूसरे, आपने नित्य नाम का कोई पदार्थ तो स्वीकार ही नहीं किया है, तो बिना नित्यता के स्मृति कैसे टिकेगी ?135
यहाँ, जैन बौद्धों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि आपकी स्थिति तो ऐसी हो रही है, जैसे एक चोर ने अपने को बचाने के लिए भयभीत होकर दूसरे चोर की शरण ग्रहण की, किन्तु दूसरा चोर भी लूटने वाला ही साबित हुआ। इस प्रकार, सबसे प्रथम तो आपने क्षणिकवाद को सिद्ध करने का प्रयास किया, लेकिन जब देखा कि क्षणिकवाद सिद्ध नहीं हो रहा है, तो आपने एक संतानवाद की शरण ग्रहण की, किन्तु आपका एक संतानवाद भी खंडित हो गया।
यहाँ, जैन बौद्धों से कहते हैं कि यदि आप एक संतान को क्षणपरंपरा से भिन्न पारमार्थिक-नित्य-पदार्थ मानेंगे, तो परमार्थ से एक स्वतंत्र सत्-स्वरूप वाला नित्य एक संतान नामक तत्त्व है- यह स्वीकार करना होगा और इसका तात्पर्य तो यही होगा कि आपने हमारे आत्मतत्त्व को ही स्वीकार कर लिया और यदि ऐसा है, तो आपके मुख में घी, शकर, क्योंकि फिर तो आपके मत में और हमारे मत में कोई विरोध ही नहीं
रहा|137
बौद्ध - पुनः, बौद्ध-दार्शनिक अपने सन्तानवाद के मत को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि उपादान-उपादेय भाव के संबंध से होने वाला
134 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 245 135 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 245 136 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 245 137 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 245
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