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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 147 स्मृति भी संभव होती है, अतः, आप जैनों का यह आरोप कि संततिवाद स्मृति संभव नहीं है, खंडित हो जाता है।130 जैन - बौद्धदर्शन के इस तर्क की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आप बौद्धों का यह कथन समुचित नहीं है, क्योंकि इस तर्क में अन्वय एवं व्यतिरेक-व्याप्ति के असंभव होने से स्वयं आपके पक्ष की सिद्धि करने वाला सद्हेतु भी नहीं है, क्योंकि- 'यत्र यत्र कार्य-कारण-भावः, तत्र तत्र स्मृतिः भवत्येव, यथा-कपासे रक्तत्वात्'- इस प्रकार, की अन्वय-व्याप्ति होना चाहिए, किन्तु यहाँ ऐसी व्याप्ति नहीं है, क्योंकि जैसे गुरु-शिष्य के मध्य, मिट्टी-घट के मध्य, तन्तु-पट के मध्य कार्य-कारण-भाव के होते हुए भी, स्मृति नहीं होती है, तो इस संदर्भ में व्याप्ति भी कैसे होगी? अर्थात् अन्वयव्याप्ति नहीं होगी। दूसरे, व्यतिरेक-व्याप्ति भी संभव नहीं है, यथा- 'यत्र यत्र न स्मृतिः, तत्र तत्र न कार्य-कारण-भावः', अर्थात् जहाँ-जहाँ स्मृति नहीं होती, वहाँ-वहाँ कार्य-कारणभाव नहीं होता है- ऐसी व्यतिरेक-व्याप्ति भी संभव नहीं है, क्योंकि तन्तु-पट में, मिट्टी-घट में, गुरु-शिष्य में स्मृति नहीं होते हुए भी कार्य-कारण-भाव तो रहा हुआ है। इस प्रकार, यहाँ व्यतिरेक-व्याप्ति भी संभव नहीं है, अतः, हम जैनों ने आप बौद्धों के समक्ष जो अनुमान प्रस्तुत किया है और उसमें जो हेतु दिया है, उसमें असिद्धता, व्यभिचारिता या अनेकान्तिकता आदि कोई भी दोष नहीं होने से उसमें कोई भी दूषण नहीं आता है, क्योंकि रक्त-कपास के बीज में और रक्त-कपास में कार्य-कारण-भाव है, किन्तु स्मृति नहीं है। कपास की रक्तता का आपका दृष्टांत भिन्न होने से हमारे हेतु में किसी भी प्रकार का कोई दोष भी नहीं आता है। दूसरे, रक्त-कपास के बीज में और रक्त-कपास में जो संबंध है, वह उनमें कथंचित्-भिन्नत्व और कथंचित्-अभिन्नत्व रूप मानने पर ही घटित होता है, सर्वथा भिन्नत्व (अन्यत्व) होने पर तो घटित भी नहीं होता है, क्योंकि बीज स्वयं ही फूटकर अंकुर के रूप में उत्पन्न हुआ और उस अंकुर से पौधा बना और पौधे से कपास उत्पन्न हुआ, तो बीज और कपास में एकान्त-अन्यत्व भी कहाँ रहा ? अर्थात् नहीं रहा, अर्थात् एकान्त भिन्नत्व होते हुए भी जहाँ-जहाँ कार्य-कारण-भाव होगा, वहाँ-वहाँ यदि स्मृति भी होती हो, तो फिर गुरु और शिष्य की बुद्धि में भी कार्य-कारण-भाव के होने पर स्मृति भी होना चाहिए. किन्तु ऐसा संभव 130 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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