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________________ 146 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा शिष्य में तो एकान्त-भिन्नत्व है, अतः, न तो संततिवाद में और न एकान्त-भिन्नत्व में स्मृति या प्रत्यभिज्ञा संभव है।129 बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक जैन-सिद्धांत की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि संतान के संस्कार (कर्मवासना) से संस्कारित होने पर ही फल-प्राप्ति संभव होती है। जिस प्रकार एक पिता अपने संस्कार अपने पुत्र को दे जाता है, फिर वह अपनी संतान को संस्कार दे जाता है, यह संस्कारों की श्रृंखला चलती रहती है, उसी प्रकार एक ही चेतना में चित्तधारा भी सतत प्रवाहित रहती है, यथा-पूर्व-चित्तक्षण की चेतना ने उत्तरक्षणवर्ती चेतना को संस्कार दिए। फिर इस उत्तरक्षणवर्ती चेतना ने अपनी अगली उत्तरक्षणवर्ती चेतना को संस्कार दिए। इस प्रकार, एक ही चेतना-सन्तानों में ज्ञान (अनुभवों) की यह धारा सतत प्रवाहमान रहती है। परिणामस्वरूप ज्ञान की (संस्कारों की) पंरपरा निरंतर आगे से आगे नदी के प्रवाह के समान गतिमान होती रहती है। अतः, हम बौद्धों के मत में स्मृति तथा तज्जन्य प्रत्यभिज्ञा घटित होती है। इस प्रकार, एक सतत प्रवाहित चित्तधारा में संस्कार-प्राप्ति की संभावना भी रहती है और इस प्रकार, पूर्ववर्ती चित्तक्षण से उत्तरवर्ती चित्तक्षण के अत्यन्त भिन्न होते हुए भी एक ही चित्त की संतान होने से स्मृति भी संभव होती है, किन्तु इसके विपरीत, भिन्न-भिन्न चित्तधाराओं में फल-प्राप्ति एवं स्मृति- दोनों संभव नहीं होते हैं, उदाहरणस्वरूप- रक्त जाति के कपास के बीज से रक्त-कपास अत्यन्त भिन्न हैं, किन्तु एक सन्तानवर्ती होने के कारण रक्त-कपास के बीज से तज्जन्य रक्त-कपास ही कार्यरूप में प्राप्त होता है। रक्त-कपास के बीज में और रक्त-कपास में कार्य-कारण-भाव है। कहने का तात्पर्य यह है कि बीज (कारण) और उसके फल (कार्य) में कार्य-कारण-भाव है, कपास में जो रक्तता होती है, वह रक्तता बीज के अंकुरित होने पर फलीभूत होती है, पुनः, उस कपास से उत्पन्न तन्तु में भी रक्तता होती है तथा तन्तु से निर्मित पट में भी रक्तता होती है। यह रक्तता बीज से लेकर उत्तरोत्तर अन्तिम परिणति तक बनी रहती है। इस प्रकार, वादी और प्रतिवादी- दोनों को मान्य बीज में जो रक्तता है, वही रक्तता फलीभूत कपास में भी होती है। इसी प्रकार, एक सन्तानवर्ती चित्तक्षण में कार्य-कारण-भाव के होते हुए भी बीज, कपास की रक्तता के समान 129 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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