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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 145 संततिवाद-सिद्धांत ही उचित सिद्ध होता है और उससे स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा भी संभव होती है। इस प्रकार, आपके द्वारा दिया हुआ दोष हम पर लागू नहीं होता है। जैन - बौद्धों द्वारा उपर्युक्त कथन किए जाने पर जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि आपका उपर्युक्त कथन निर्दोष नहीं है। जिस प्रकार चैत्र और मैत्र- दोनों समानान्तर भिन्न-भिन्न हैं, उन चित्तक्षणों में अन्यत्व या भिन्नत्व है, उसी प्रकार अकेले चैत्र नामक व्यक्ति में भी पूर्वक्षण की चित्तवृत्ति से उत्तरक्षण की चित्तवृत्ति भी भिन्न ही है। जिस प्रकार चैत्र और मैत्र की चित्तधारा में एकान्त-भिन्नत्व है, उसी प्रकार अकेले चैत्र की चित्तधारा में भी पूर्व-चित्तक्षण और उत्तर-चित्तक्षण में एकान्त-भिन्नत्व है और एकान्त-भिन्नत्व में स्मृति कैसे संभव होगी ? यद्यपि आपका यह कथन तो ठीक है कि पूर्व-चित्तक्षण के उत्तर-चित्तक्षणों में संस्कारों के संस्कारित होने के कारण उनमें कार्य-कारण-भाव है, किन्तु हम जैनों का तर्क यह है कि कार्य-कारण-भाव के होते हुए भी स्मृति का होना अवश्यंभावी नहीं है, जैसे एक पिता की सन्तान में भी पिता के अनुभवों की स्मृति नहीं होती है, अतः, हेतु के समान होने पर भी स्मृति की असंभावना नहीं होती है, लेकिन हेतु के समान होने पर भी स्मृति की असंभावना की सिद्धि तो हो ही जाती है। दूसरे, जब तक स्मृति-प्रत्यभिज्ञा संभव नहीं होगी, तब तक अनुमान-प्रमाण भी सिद्ध नहीं होगा। पुनः, जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कोई भी उदाहरण वादी और प्रतिवादी- दोनों के समक्ष नहीं है कि एकान्त-भिन्नत्व होते हुए भी मात्र कार्य-कारण-भाव से स्मृति घटित हो जाती है। ऐसे उदाहरण अनेक हो सकते हैं कि जहाँ कार्य-कारण-भाव के होते हुए भी स्मृति संभव नहीं होती है। उदाहरणस्वरूप- गुरु, शिष्य को ज्ञान देता है, गुरु कारण है और शिष्य का ज्ञान कार्य है। गुरु-शिष्य में पिता-पुत्र जैसा संबंध तो जरूरी नहीं होता है, जिससे गुरु के सभी संस्कार या अनुभव शिष्य में आते ही हों। वस्तुतः, न तो पिता-पुत्र में कार्य-कारण-भाव के होते हुए भी पिता के अनुभवों की सम्पूर्ण स्मृति पुत्र में संभव हो सकती है और न गुरु-शिष्य में कार्य-कारण-भाव होते हुए भी एक अनुभवों की स्मृति दूसरे को संभव हो सकती है, चाहे पिता-पुत्र में संततिभाव हो, किन्तु गुरु और 127 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 241 128 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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