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________________ 144 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्ष बौद्ध - इस पर बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि चित्त की अनित्यत के कारण हमारे दर्शन में 'स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का अभाव होता है- ऐस आप जैनों ने हम बौद्धों पर दोषारोपण किया है, किन्तु हम सामान्यतय ऐसा कथन करते हैं कि भिन्न-भिन्न चित्तक्षण को, भिन्न-भिन्न ज्ञान होने पर स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का अभाव हो सकता है, अर्थात् एक चित्तक्षण है जो ज्ञान प्राप्त किया, उससे सर्वथा भिन्न दूसरे चित्तक्षण में दूसरा ज्ञान हो तो वहाँ पर स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का अभाव हो सकता है,125 किन्तु हम ते यह मानते हैं कि समस्त पदार्थ प्रतिक्षण विनश्वर स्वभाव वाले होने से एक-दूसरे से भिन्न तो हैं, किन्तु इस भिन्नत्व के होते हुए भी उनमें कार्य-कारण-भाव है और जहाँ कार्य-कारण-भाव होता है, वहाँ स्मृति और प्रत्यभिज्ञा भी संभव है, क्योंकि कार्य कारण के अनुरूप है। उत्तरक्षण पूर्वक्षण की सन्तान होता है, अतः, उनमें कुछ समानता भी होती है। चैत्र और मैत्र- ये दोनों भिन्न-भिन्न सन्तान हैं। देवदत्त और यज्ञदत्त- ये दोन भी भिन्न-भिन्न सन्तान हैं। इन दोनों के भिन्न-भिन्न संतान होने के कारण इनका चित्तक्षण भी भिन्न-भिन्न होगा और दोनों के चित्तक्षण भिन्न होने के कारण एक के संस्कार दूसरे को प्राप्त नहीं होंगे। वहाँ कार्य-कारण क अभाव होता है। चैत्र ने जो ज्ञान (अनुभव) प्राप्त किया है, उसकी स्मृति सन्तानान्तरवर्ती मैत्र को नहीं हो सकती है, किन्तु यदि वे परस्पर एक के ही सन्तान हैं, तो पूर्व-चित्तक्षण ने जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह पूर्व-चित्तक्षण अपने ज्ञान के संस्कार अपने उत्तर-चित्तक्षण को दे देता है जिस प्रकार एक पिता अपने संस्कार अपने पुत्र को देता है, अथवा पित के संस्कार पुत्र में अवश्य आते हैं। जिस प्रकार एक ही पिता की संतान पिता के संस्कारों को, किंवा उनके गुण-धर्मों को धारण करती चली जात है, उसी प्रकार पूर्वक्षण की चेतना अपने से उत्पन्न उत्तरक्षण की चेतना के अपने संस्कार दे देती है, अर्थात पूर्वक्षण अपनी विशेषताओं को उत्तरक्षण को दे जाता है। पूर्वक्षण और उत्तरक्षण एक-दूसरे से अप्रभावित नहीं रहा हैं, अतः, पूर्वक्षण से उत्तरक्षण अत्यन्त भिन्न न होने के कारण दोनों में कार्य-कारण-भाव होता है और कार्य-कारण-भाव होने के कारण पूर्वक्षण की स्मृति और तज्जन्य प्रत्यभिज्ञान भी संभव है। यह चित्तक्षणों के निरंतरता सतत प्रवाहित होती रहती है, अर्थात् जारी रहती है। किन्तु भिन्न-भिन्न सन्तानरूप चित्तक्षणों में कार्य-कारण-भाव नहीं होता है, अतः उनमें स्मृति और प्रत्यभिज्ञा संभव नहीं है। इस प्रकार, हम बौद्धों क 126 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 241 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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