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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 143 जैनों का उत्तरपक्ष जैन - जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि पूर्वक्षणवर्ती जिस चित्त ने जो ज्ञान प्राप्त किया है, उस पूर्वक्षणवर्ती चित्त का नाश होने से और उत्तरक्षणवर्ती नवीन चित्त के उत्पन्न होने से- इस प्रकार, पूर्व-पूर्व क्षणवर्ती चित्त से उत्तर-उत्तर-क्षणवर्ती चित्त के अत्यन्त भिन्न होने के कारण नए-नए ज्ञान या अनुभव के उत्पन्न होते हुए भी दोनों चित्त एकान्त-भिन्न होने से उस पूर्वक्षणवर्ती चित्त में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा घटित नहीं होती है। यह बात तो जगत् प्रसिद्ध है कि अत्यन्त भिन्न चैत्र के द्वारा जाने हुए पदार्थों के ज्ञान की स्मृति और प्रत्यभिज्ञा अत्यन्त भिन्न मैत्र को नहीं हो सकती है। कदाचित् ऐसा भी मान लिया जाए कि एक के अनुभवों की स्मृति दूसरे को हो सकती है, तो फिर किसी भी एक व्यक्ति को हुए पदार्थ-बोध से संसार के सभी व्यक्तियों को उसकी स्मृति हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। इस प्रकार, से, चैत्र नामक एक ही व्यक्ति ने पूर्वक्षणवर्ती चित्त (बुद्धि) द्वारा जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसकी स्मृति उत्तरक्षणवर्ती चित्त को नहीं होगी और स्मृति के न होने पर प्रत्यभिज्ञा का जन्म भी नहीं होगा, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति स्मृति और अनुभवदोनों से होती हैं। इस प्रकार, से, पदार्थमात्र के अनुभव से आत्मा में स्थित पूर्व-संस्कार वाला ज्ञान प्रमाता-आत्मा को 'वही यह पदार्थ है- इस प्रकार, का प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है, अर्थात् भूतकाल के पदार्थ को वर्तमानकाल के पदार्थ के साथ तुलना करना कि 'यह वही है, 'यह उसके तदरूप है, 'यह गाय उस गाय के समान है इत्यादि को प्रत्यभिज्ञा कहते हैं, किन्तु प्रतिक्षणवर्ती-पूर्वक्षणवर्ती चित्त से उत्तरक्षणवर्ती चित्त के अत्यन्त भिन्न-भिन्न होने से स्मृति घटित नहीं होती है तथा इसी प्रकार, स्मृति और अनुभव से होने वाली प्रत्यभिज्ञा भी घटित नहीं होती है। इस प्रकार, बौद्धों का पूर्वपक्ष दूषित सिद्ध होता है। दूसरे शब्दों में, पूर्व में अनुभूत पदार्थ के वर्तमान में हमारी चेतना में जो संस्कार जाग्रत होते हैं, वह स्मृति है, इसमें वर्तमान का विषय नहीं होता है, यद्यपि प्रत्यभिज्ञा में वर्तमान का अनुभव होता है, किन्तु उससे तुलनात्मक-ज्ञान होता है, वह तो पूर्वकालिक-अनुभव की स्मृतिरूप होता है, अतः, बौद्धदर्शन में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा सम्भव नहीं होती है। 125 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि. पृ. 240 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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