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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
धारावाहिक - ज्ञान को ही स्वीकार करते हैं। उस चित्तधारा में या ज्ञान-धारा में अन्वयी (ध्रुव) आत्म-तत्त्व को नहीं मानते हैं । 121
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चार्वाक - दार्शनिक तो आत्म-तत्त्व के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं मानते हैं। वे तो यह मानते हैं कि चेतना भूतों के संयोग से उत्पन्न होती है । आत्मद्रव्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसके विपरीत, बौद्ध- दार्शनिक आत्मा या चेतना के अस्तित्व को तो मानते हैं, किंतु उसे चित्त - पर्यायों के रूप में सतत परिवर्तनशील मानते हैं । चार्वाक आत्मा नामक मूलतत्त्व (द्रव्य) नहीं मानते हैं, अतः उनके दर्शन में स्मरण और प्रत्यभिज्ञा आदि संभव ही नहीं हैं, जबकि बौद्ध-मत में तो चित्त-धारा के रूप में चेतन - सत्ता (आत्म-तत्त्व ) को स्वीकार करते हुए भी स्मृति और प्रत्यभिज्ञा की सिद्धि नहीं होती है। 122
उपर्युक्त कथन का फलितार्थ यह होता है कि जिसके पास धन ही नहीं है, वह न तो दान-पुण्य आदि कर सकता है और न सांसारिक सुखों का अनुभव कर सकता है, किंतु जिसके पास धन होते हुए भी यदि वह दान-पुण्य न कर सके, या विषय-भोगों के सुखों का अनुभव न कर सके, तो यह कितने आश्चर्य की बात होगी । बौद्धों की स्थिति ऐसी ही है ।'
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रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि
बौद्ध - दार्शनिकों की इस अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि बौद्ध - दार्शनिक यह कहते हैं कि पूर्वक्षण के चित्त ने जिस विषय का ज्ञान ( अनुभव ) प्राप्त किया, उस विषय की स्मृति उत्तर - क्षणवर्ती - चित्त में नहीं रहती है, क्योंकि पूर्वक्षण के चित्त से उत्तर - क्षणवर्ती - चित्त सर्वथा भिन्न है । जिस प्रकार एक पिता की दो सन्तानों की बुद्धि भिन्न-भिन्न होती है, यथा- चैत्र की बुद्धि से मैत्र की बुद्धि अत्यन्त भिन्न होती है, चैत्र ने जो ज्ञान प्राप्त किया, उसकी स्मृति मैत्र को नहीं हो सकती है और मैत्र ने जो ज्ञान प्राप्त किया, उसकी स्मृति चैत्र को नहीं होगी। परिणामतः, जिसने जो ज्ञान ( अनुभव ) प्राप्त किया है, उसकी स्मृति भी उसी को रहेगी। 12
121 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 239
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- रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 239, 240
123 'रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 240 124 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 240
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