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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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मानते हैं, तो आत्मतत्त्व (मैं) और आत्मीयत्व (मेरा) का आग्रह होने के कारण मुक्ति की प्राप्ति ही संभव नहीं होती। बौद्धों के आत्मसन्ततिवाद की समीक्षा -
जैन- चार्वाक दर्शन के पंच महाभूतों से निर्मित आत्मतत्त्व की समीक्षा करने के पश्चात् जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के आत्मसन्ततिवाद की समीक्षा करते हुए "प्रमाता' (आतमतत्त्व) के प्रस्तुत प्रकरण में लिखते हैं कि बौद्ध चित्त की क्षण-परंपरा मात्र को ही 'आत्मा' मानते हैं, अर्थात प्रतिसमय नष्ट होने वाली चित्त-धारा ही आत्मा है। वस्तुतः, जैन-दर्शन स्वतंत्र आत्मद्रव्य के अस्तित्व को मानता है। यद्यपि चैतन्य पर्यायें बदलती रहती हैं, किन्तु उन बदलती हई पर्यायों के बीच भी एक नित्य-तत्त्व रहा हआ है, जिसे जैन-दर्शन में आत्मा कहा गया है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न मोतियों को एक धागे में पिरोए जाने से वह एक माला का रूप धारण कर लेता है, अर्थात् मोतियों में अनुस्यूत वह धागा नित्य-तत्त्व के रूप में उन सब मोतियों को व्यवस्थित बनाए रखता है।120 बौद्धों का पूर्वपक्ष
बौद्ध- इसके विपरीत, बौद्ध-दार्शनिक यह अवधारणा देते हैं कि मोती की माला में भिन्न -भिन्न मोतियों के पिरोए जाने पर भी धागा एक ही रहता है, अर्थात अन्वयी (ध्रुव) रहता है, किन्तु प्रतिक्षण विनश्वर सतत ज्ञान (चित्त) धारा में मोती की माला में धागे के समान आत्म-तत्त्व (चैतन्य) नित्य (ध्रुव) नहीं है। क्षण-क्षण में चित्त-पर्याय (धारा) विनाश को प्राप्त होती है और नए-नए (अपूर्व-अपूर्व) ज्ञान को आविर्भूत (उत्पन्न) करती है । जिस प्रकार नदी का जल-प्रवाह सतत प्रवहमान रहता है। पुराना पानी बह जाता है, नया-नया पानी प्रवाह के माध्यम से आता रहता है, उसी प्रकार चेतना का प्रवाह सतत रहता है। चेतना में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। नित्यता का अनुभव केवल एक धारा का ही होता है। इस प्रकार, बौद्ध प्रतिक्षण उत्पाद-विनाशशील ऐसी चित्तधारा को या
11 यत्तु नित्यत्वेऽस्यात्मीयग्रहसद्भावेन मुक्त्यनवाप्तिदूषणममाणि, तदप्यनवदातम्, विदितपर्यन्तविरससंसार स्वरूपाणां परिगत पारमार्थिकैकान्तिकाऽऽत्यन्तिकानन्द सन्दोहस्वभावापवर्गोपनिषदां च महात्मनां शरीरेऽपि किम्पाकपाकोपलिप्तपायस इव निर्ममत्वदर्शनात्।। -रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि. पृ. 252 120 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 239
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