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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
पदार्थों की अपेक्षा भी अधिक क्षणिक है। वह शाश्वत रूप से संसरण करने वाला नहीं हो सकता । वस्तुस्थिति यह है कि एक जन्म के अन्तिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। इस कारण न तो वही जीव रहता है और न दूसरा ही हो जाता है
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बौद्धदर्शन अनेक चित्तधाराओं को स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि कक, क, क, एक चित्तधारा है और ख, खु, खु, ख, दूसरी चित्तधारा है । यद्यपि क क क क एक-दूसरे से अभिन्न नहीं हैं और ख, खु, ख, ख, भी एक-दूसरे से अभिन्न नहीं हैं, तथापि इनमें से प्रत्येक आत्म-सन्तान के सदस्यों के बीच जो बन्धुता है, वह एक आत्म- सन्तान के एक सदस्य और दूसरी आत्मसन्तान के दूसरे सदस्य, अर्थात् क, या ख के बीच नहीं है। बौद्ध धर्म आत्मा का एक ऐसी स्थायी सत्ता के रूप में, जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरिवर्तित बनी रहे, अवश्य निषेध करता है, पर उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को स्वीकार करता है। बौद्धदर्शन उपादान के अभेद के अर्थ में एकता को तो अस्वीकार करता है, लेकिन उसके स्थान पर सातत्य को स्वीकार करता है । यह आत्म सन्तानों की प्रवाही धाराओं का सातत्य ही बौद्धदर्शन की 'आत्मा' है। यही तरल आत्मा पुनर्जन्म ग्रहण करती है। इस प्रकार,, बौद्ध - अनात्मवाद और क्षणिकवाद की भूमि को क्षति पहुँचाए बिना पुनर्जन्म की व्याख्या संभव है । 118
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्धदर्शन में अनात्मवाद आत्म-संततिवाद ही है । वह किसी सीमा तक जैनदर्शन के परिणामी आत्मवाद का ही एक रूप है। अन्तर केवल इतना है कि जहाँ जैनदर्शन आत्मा को नित्य - द्रव्य के रूप में और चेतन अवस्थाओं के आत्म-पर्यायों के रूप में मानता है, वहीं बौद्धदर्शन केवल चित्त-पर्यायों की बात करता है । बौद्धों के दार्शनिक-ग्रन्थों में आत्म- संततिवाद का प्रस्तुतिकरण भी वस्तुतः चित्त या चेतन - धाराओं के रूप में ही हुआ है। बौद्धदर्शन नित्य, कूटस्थ व अपरिणामी - आत्मा का निषेध करता है और परिणामी - आत्मा को चेतन प्रकार के रूप में देखता है। इस आत्म- संततिवाद को ही बौद्ध- दार्शनिक-ग्रन्थ में पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है। रत्नाकरावतारिका में भी कहा गया है कि जो आप जैन आत्मा को नित्य
118 देखें – जैन, बौद्ध और गीता के आचार- - दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग I, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 252
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