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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
बौद्ध--अनात्मवाद का अर्थ आत्म- संततिवाद
सामान्यतया, बौद्धदर्शन में अनात्मवाद का अर्थ आत्म-संततिवाद ही है । जैसा हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि बौद्धदर्शन सत्ता के अस्तित्व का निषेध नहीं करता है, मात्र उसकी शाश्वतता या कूटस्थता का निषेध करता है । सामान्यतया, विपक्षीय -- विचारकों ने बौद्ध-धर्म के अनात्मवाद और क्षणिकवाद को पुनर्जन्म की व्याख्या की दृष्टि से असंगत माना है, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। बौद्धदर्शन में अनात्मवाद आत्मा का अभाव नहीं है । वह कूटस्थनित्य आत्मा का निषेध है, इसीलिए बौद्धदर्शन के अनात्मवाद को आत्म-संततिवाद के रूप में समझा जाना चाहिए । आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं- नैरात्म्यवाद से पुनर्जन्म और कर्म के प्रति उत्तरदायित्व के सिद्धांत को क्षति नहीं पहुँचती है। नित्य आत्मा की प्रतिज्ञा करना भूल है, संतति का उल्लेख करना चाहिए। 117
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अनात्मवाद या क्षणिकवाद के साथ पुनर्जन्म का सिद्धांत कैसे संगत हो सकता है, इसकी विवेचना भदन्त नागसेन ने राजा मिलिन्द के सामने की थी। जब मिलिन्द ने नागसेन से अनात्मवाद एवं क्षणिकवाद की विवेचना सुनी, तो उनके हृदय में भी पुनर्जन्म की असम्भावना की शंका उठ खड़ी हुई। उन्होंने नागसेन से समाधान के लिए प्रश्न किया- "भन्ते नागसेन ! कौन उत्पन्न है ( पुनर्जन्म ग्रहण करता है) ? क्या वह वही रहता है, या अन्य हो जाता है ?" नागसेन ने उत्तर दिया- "न तो वही और न अन्य | जैसे एक युवक वृद्ध होने तक न तो वही रहता है और न अन्य हो जाता है, वैसे जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है, वह न तो वही रहता है और न अन्य हो जाता है।" मिलिन्द फिर भी सन्तुष्ट न हो सका । उसने यह जानना चाहा कि वह क्या है, जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है ? नागसेन ने इसके उत्तर में यह स्पष्ट किया कि यह नाम-रूपात्मक संतति-प्रवाह ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है। वे कहते हैं, "राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है, वह तो एक अन्य नाम-रूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है, वह एक अन्य, किन्तु द्वितीय ( नाम - रूप) प्रथम ( नाम - रूप) में से ही निकलता है, अतः, हे महाराज ! धर्म-सन्तति ही संसरण करती है ।" भगवान् बुद्ध के समय में सातिकेवट्टपुत्त नामक भिक्षु को यह मिथ्या धारणा उत्पन्न हुई थी कि वही एक विज्ञान' आवागमन करता है। इस पर भगवान् ने उसे समझाया था कि विज्ञान तो प्रतीत्य - समुत्पन्न है । वह तो भौतिक
117 देखें - बौद्ध धर्म दर्शन, आचार्य नरेन्द्रदेव, पृ. 286
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