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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
करना था, सो कर लिया, अब आगे कुछ करने को शेष नहीं है- ऐसा वह प्रज्ञा द्वारा जानता है।"
यह है सम्पूर्ण अनात्मवाद का उपदेश, जिसे भगवान ने दिया। कितना विशद और सरल है इसका रूप, जिसे किसी व्याख्या की अपेक्षा नहीं। तीन बातें भगवान् ने क्रमशः अत्यन्त सरल शब्दों में यहाँ कही है। पहली बात यह है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को आत्मा समझना उचित नहीं है, क्योंकि ये बाधाओं से ग्रस्त हैं, रोग के अधीन हैं। दूसरी बात यह कही है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान अनित्य हैं, अतः, दुःख हैं, अतः, ये आत्मा नहीं हो सकते। तीसरी बात यह कही है कि जब ये आत्मा नहीं हैं, तो इनसे निर्वेद प्राप्त करना चाहिए, इनसे विरक्त होना चाहिए और इस प्रकार, विराग के द्वारा विमुक्ति का साक्षात्कार कर कृतकृत्यता सम्पादित करना चाहिए। बुद्धोपदिष्ट अनात्मवाद अपने सम्पूर्ण रूप में इतना ही है, न इससे कुछ कम न अधिक 110
इस प्रकार, हम देखते हैं कि त्रिपिटक-साहित्य में रूप आदि को अनित्य और दुःख-रूप बताकर भी उसके अनात्म होने का निर्देश किया गया है, किन्तु यहाँ यह समझना आवश्यक है कि भगवान् बुद्ध द्वारा प्रतिपादित इस अनात्म का वास्तविक स्वरूप क्या है ? इस संदर्भ में भारतीय-दार्शनिकों की भ्रान्ति यह रही कि उन्होंने अनात्म का अर्थ आत्मा नहीं है- ऐसा मान लिया, जबकि बौद्धदर्शन में अनात्म (अनत्त) का वास्तविक अर्थ मेरेपन का निषेध है। रूप आदि की अनित्यता और दुःख रूपता के आधार पर यह बताया है कि - ये न मैं हूँ, न मेरे हैं, न मेरी आत्मा है। इस समग्र प्रसंग में आत्मा शब्द अपनेपन का ही द्योतक है। जैन-दार्शनिक हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में यही कहा है कि भगवान् बुद्ध ने अनात्म का उपदेश तृष्णा के उच्छेद के लिए ही दिया था। बौद्धदर्शन में अनात्लवाद का वास्तविक अर्थ यह है कि संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हम अपना कह सकें।
आत्मा नित्य है या अनित्य- इस प्रश्न को लेकर भगवान् बुद्ध का स्पष्ट निर्णय था कि न मैं शाश्वतवाद को मानता हूँ और न मैं उच्छेदवाद को मानता हूँ। अनात्म का अर्थ आत्मा नहीं है- ऐसा कहना वस्तुतः उच्छेदवाद का समर्थन करना ही है, जो भगवान बुद्ध को मान्य नहीं था।
116 देखें - बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 415 से 419
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