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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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"नहीं, भन्ते !" "इसलिए भिक्षुओं ! जो कुछ भी यहाँ रूप है, चाहे वह अतीत का हो, या भविष्यत् का, या वर्तमान का, आन्तरिक या बाह्य, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या प्रणीत, समीप का या दूर का, वह सब रूप मेरा नहीं है, वह मैं नहीं हूँ, वह मेरी आत्मा नहीं है, इस प्रकार, सम्यक्-प्रज्ञा द्वारा यथाभूत रूप से देखना चाहिए।"
"इसलिए भिक्षुओं ! जो कुछ भी यहाँ वेदना है, चाहे वह अतीत की हो, या भविष्यत् की, या वर्तमान की, आन्तरिक या बाह्य, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या प्रणीत, समीप की या दूर की, वह सब वेदना मेरी नहीं है, वह मैं नहीं हूँ, वह मेरी आत्मा नहीं है, इस प्रकार, सम्यक्प्रज्ञा के द्वारा यथाभूत रूप से देखना चाहिए।"
"इसलिए भिक्षुओं ! जो कुछ भी यहाँ संज्ञा है, चाहे वह अतीत की हो, या भविष्यत् की, या वर्तमान की, आन्तरिक या बाह्य, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या प्रणीत, समीप की या दूर की, वह सब संज्ञा मेरी नहीं है, वह मैं नहीं हूँ, वह मेरी आत्मा नहीं है, इस प्रकार, सम्यक्प्रज्ञा के द्वारा यथाभूत रूप से देखना चाहिए।
इसलिए भिक्षुओं ! जो कुछ भी संस्कार यहाँ हैं, चाहे वे अतीत के हों, या भविष्यत् के, या वर्तमान के, आन्तरिक या बाह्य, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या प्रणीत, समीप के या दूर के, ये सब संस्कार मेरे नहीं हैं, वे मैं नहीं हूँ, वे मेरी आत्मा नहीं हैं, इस प्रकार सम्यक्प्रज्ञा द्वारा यथाभूत रूप से देखना चाहिए।
"इसलिए भिक्षुओं ! जो कुछ विज्ञान यहाँ है, चाहे वह अतीत का हो, या भविष्यत् का, या वर्तमान का, आन्तरिक या बाह्य, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या प्रणीत, समीप का या दूर का, वह सब विज्ञान मेरा नहीं है, वह मैं नहीं हूँ, वह मेरी आत्मा नहीं है, इस प्रकार, सम्यक् प्रज्ञा द्वारा यथाभूत रूप से देखना चाहिए।
"भिक्षुओं ! इस प्रकार, देखकर श्रुतवान् आर्य श्रावक के रूप में निर्वेद को प्राप्त करता है, वेदना में भी निर्वेद को प्राप्त करता है, संज्ञा में भी निर्वेद को प्राप्त करता है, संस्कारों में भी निर्वेद को प्राप्त करता है, और विज्ञान में भी निर्वेद को प्राप्त करता है। विमुक्त होने पर उसे यह ज्ञान होता है- 'मैं विमुक्त हूँ।' जन्म क्षय हो गया, ब्रह्मचर्यवास पूरा हुआ,
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