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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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अध्याय 4
बौद्ध-अनात्मवाद का स्वरूप और समीक्षा
त्रिपिटक-साहित्य में प्रस्तुत अनात्मवाद- भगवान् बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में अनात्मवाद एक प्रमुख सिद्धान्त है। जैन-दार्शनिकों ने बौद्धदर्शन के अनात्मवाद की समीक्षा करते हुए उसका अर्थ, आत्मा नहीं है- ऐसा लगाया है। रत्नाकरावतारिका में भी प्रमाता के स्वरूप की चर्चा करते हुए रत्नप्रभसूरि ने भी अनात्मवाद का अर्थ प्रमाता-आत्मा का अभाव ही माना, किन्तु अनात्मवाद का यह अर्थ समुचित नहीं है। अनात्मवाद का वास्तविक अर्थ क्या है ? यह समझने के लिए सर्वप्रथम हमें पूर्वपक्ष के रूप में त्रिपिटक-साहित्य में प्रस्तुत अनात्मवाद के संदर्भो को देख लेना होगा। "तो क्या मानते हो भिक्षुओं! रूप नित्य है या अनित्य ?"
"अनित्य, भन्ते।" "और जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख ?"
"दुःख, भन्ते!" "तो भिक्षुओं ! जो अनित्य है, दुःख है, विपरिणामधर्मा है, क्या उसके संबंध में यह समझना ठीक है कि "यह मेरा है, यह मैं हूँ, यह मेरा अपना है?"
"नहीं, भन्ते !" "भिक्षुओं ! वेदना नित्य है या अनित्य ?"
"अनित्य, भन्ते !" "और जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख ?"
"दुःख, भन्ते !"
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