________________
134
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बौद्धो का संतानवाद उनके क्षणिकवाद का एक पूरक-पक्ष ही है, जो परिवर्तन के बीच भी सादृश्यता की बात करता है। रत्नाकरावतारिका में इन दोनों सिद्धांतों की जो समीक्षा की गई है, वह वस्तु को एकांत-क्षणिक मानकर ही की गई है। बौद्धों का क्षणिकवाद उनके संतानवाद के साथ मिला हआ ही है, सत्य तो यह है की जहाँ क्षणिकवाद वस्तु की परिवर्तनशीलता को सूचित करता है, वहीं संतानवाद इस परिवर्तनशीलता के बीच रही हई सदशता को प्रस्तुत भी करता है और स्पष्ट भी करता है, जिससे वस्तु 'वही प्रतीत होती है। हमें इन दोनों सिद्धांतों को एक साथ देखना होगा। जब हम इन दोनों सिद्धांतों को एक साथ देखेंगे, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वे जैन-दर्शन द्वारा मान्य वस्तु की उत्पाद-व्ययधौव्यात्मकता को ही प्रस्तुत कर रहे हैं। उनका सन्तान की सदृशता का सिद्धांत वस्तुत: सापेक्षिक-ध्रौव्यात्मकता का ही सूचक है। यद्यपि उनके अनुसार, यह सादृश्यता पूर्ण सादृश्यता न होकर मात्र सादृश्यता का आभास ही है, फिर भी पूर्वक्षण और उत्तरक्षण को जोड़ने वाला यदि कोई आधार है, तो वह यह सादृश्यता या संततिवाद ही है। जैनाचार्यों ने और विशेष रूप से रत्नप्रभसूरि ने भी बौद्धों की आलोचना एकान्त-क्षणिकवाद मानकर की है, जबकि बौद्ध वस्तुतः एकान्त-क्षणिकवादी नहीं हैं। यह ठीक है कि बौद्ध-ग्रन्थों में वस्तु की क्षणिकता की यह धारणा अधिक मुखर होकर प्रकट हुई है, फिर भी वे एकांत-क्षणिकवादी नहीं हैं। एकांत-क्षणिकवाद वस्तुतः उच्छेदवाद का ही रूपान्तरण है, किन्तु भगवान् बुद्ध ने सदैव ही उच्छेदवाद का विरोध किया है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मैं न तो उच्छेदवादी हूँ और न शाश्वतवादी, अतः, बौद्धों के क्षणिकवाद और संततिवाद को मिलाकर देखना होगा। यदि हम ऐसा करेंगे, तो जैन और बौद्ध-दर्शन में वह दूरी नहीं रह जाएगी, जैसी सामान्यतया समझी जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org