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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 133 वह वस्तु अनन्तरवर्ती क्षण में उसी रूप में विद्यमान नहीं रहती है, दूसरे क्षण में जो प्रतीत होती है, वह उसके सदृश उसकी सन्तान होती है। जैनों का कहना है कि वस्तु को प्रतिक्षण बदलती हुई मानने पर अनेक प्रकार की तार्किक-कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, क्योंकि जिस स्वलक्षण वस्तु का इस क्षण में प्रत्यक्ष हो रहा है, वह उत्तरवर्ती क्षण में प्राप्त होती है, कोई अन्य वस्तु ही दूसरे क्षण में प्राप्त नहीं होती है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि प्रमाण को अविसंवादक माना जाए, तो फिर दो क्षण भी स्थायी नहीं रहने वाली वस्तु में अविसंवादकता का निर्णय कैसे होगा ? डॉ. धर्मचन्द जैन का कहना है कि इस तार्किक-कठिनाई को बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर ने समझा था और उसने इसका समाधान खोजने का प्रयत्न भी किया था। रत्नाकरावतारिका में हमें न केवल धर्मोत्तर का उल्लेख प्राप्त होता है, अपितु हम यह भी देखते हैं कि रत्नाकरावतारिका में बौद्धों के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत करने में धर्मोत्तर का ही आधार लिया गया है। धर्मोत्तर ने प्रमाण के विषय को दो प्रकार का प्रतिपादित किया है - 1. ग्राह्य एवं 2. प्रापनीय (अध्यवसेय)। प्रत्यक्ष-प्रमाण का ग्राह्य विषय स्वलक्षण है, किन्तु अविसंवादकता का निर्णय करते समय स्वलक्षण-क्षण को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः, प्रत्यक्ष का प्रापनीय विषय तो उसकी संतान ही होती है।15 बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद की तार्किक-स्थापना की एक अन्य कठिनाई यह है कि वस्तु की क्षणभंगता का उपदर्शन संभव नहीं होता है, क्योंकि यदि वस्तु प्रतिक्षण बदल रही है, तो और यदि वह दो क्षण भी स्थाई नहीं है, तो फिर उस परिवर्तनशीलता का बोध कैसे होगा ? इसका समाधान करते हुए बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि सदृश क्षणों में मनुष्य को परमार्थ-क्षण का भ्रम तो होता रहता है, किन्तु जैन-दार्शनिकों का कहना यह है कि क्षणभंगवाद में सर्वथा सादृश्य की कल्पना भी अनिष्ट एवं अयुक्त है। उपसंहार - वस्तुतः, बौद्धों के क्षणिकवाद और संतानवाद एक-दूसरे के पूरक हैं, जहाँ क्षणिकवाद वस्तु की परिवर्तनशीलता को बताता है, वही संतानवाद पूर्वक्षण और उत्तरक्षण की वस्तु के सापेक्षिक-सदृश्य को स्पष्ट करता है। 115 न्याय बिन्दु, 1/12, पृ. 70 से 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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