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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
पुनः, जैन कहते हैं कि मुद्गर आदि कारणभूत नाशक-सामग्री घट से भिन्न होकर भी जब घट का नाश कर सकती है, तो फिर उसे पटादि से भिन्न होकर उनकी भी नाशक होना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार नाशक-सामग्री घट से भिन्न है, उसी प्रकार वह पट से भिन्न ही है, किन्तु बौद्ध-दार्शनिकों का यह तर्क युक्तिसंगत नहीं है।"
पुनः, बौद्धों के इस तर्क की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभसूरि पुनः कहते हैं कि घट और उसकी नाशक-सामग्री में आप जो भेद (भिन्नता) समझ रहे हैं, वह भेद भी एकान्त-भेद नहीं है, इसलिए मुदगर आदि से जो घट का नाश होता है, वैसा ही नाश पट का भी होना चाहिए। बौद्धों का ऐसा कथन समुचित नहीं है, क्योंकि घट का नाश होने पर भी घट की उत्पादक-सामग्री मिट्टी तो कपालों में भी तादात्म्य-रूप से बनी रहती है। घट के उत्पादन के पूर्व भी जब मिट्टी पिंडरूप में रहती है, तब भी वह मिट्टी है और मिट्टी के पिंड से जब घट की उत्पत्ति होती है, तब भी मिट्टी है, अर्थात घट-पर्याय या घटाकारता में भी मिट्टी है, तब घट-पर्याय के नाश होने पर कपालों में भी मिट्टी की पिंडरूप पर्याय में, घट-पर्याय में एवं घट के नाशरूप कपाल के पर्याय में- तीनों ही पर्यायों में मृत्तिका-द्रव्य की ध्रौव्यता (नित्यता-तादात्म्यता) निश्चित रूप से रहती है। मुदगर आदि से जब घट का नाश होता है, तो उस घट के टुकड़े में भी मिट्टी अभेदरूप से रहती है। दूसरे शब्दों में, घट के नाश में मृत द्रव्य अन्वयरूप से रहता है, उसी प्रकार मृत्तिका-द्रव्य पट के नाश में नहीं रहता है, अतः, द्रव्य में भिन्नता होने के कारण घट की नाशक-सामग्री पट की नाशक नहीं होती है। इसी प्रकार, हम घट और घट के नाश में भी द्रव्य की तादात्म्यता के कारण कथंचित्-भेद ही मानते हैं, एकान्तभेद नहीं मानते हैं, जिससे घट की नाशक-सामग्री घट और पट से समान रूप से भिन्न होकर भी पट की नाशक नहीं होती है, अतः, आप बौद्धों का तर्क समुचित नहीं है। दूसरे, घट के अस्तित्व और घट के नाश में हम जैन सर्वथा अभेद (तादात्म्य) भी नहीं मानते हैं, क्योंकि घट का अस्तित्व और घट के विनाश में अभेद मानने पर दोनों एक ही समय में और एक साथ नहीं हो सकते हैं। दोनों में से किसी एक का ही अस्तित्व हो सकता है, दोनों के एक साथ अस्तित्व में आपत्ति आती है, अर्थात् दोनों में से किसी एक के रहने पर दूसरा तो नहीं हो सकता है। घट और घट का नाश- इन दोनों के सर्वथा अभिन्न
111 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 729
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