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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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होने पर घट के अस्तित्व के समय भी घट-नाश होने पर घट रहेगा ही नहीं और घट–नाश के समय भी घट के विद्यमान होने पर घट-नाश होता नहीं, अर्थात् घट का अस्तित्व और घट के विनाश में सर्वथा अभेद होने के कारण दोनों में से एक ही रहेगा और शेष एक का अभाव होगा, अतः, घट के अस्तित्व और घट के विनाश में द्रव्य की अपेक्षा से कथंचित-अभेद भी है और पर्याय की अपेक्षा से कथंचित्-भेद भी है। इस प्रकार, की मान्यता में किसी भी प्रकार का कोई भी दोष उत्पन्न नहीं होता है और हम जैन ऐसा ही मानते हैं।12
अन्त में, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि हम जैन पदार्थ के अस्तित्व में द्रव्य की अपेक्षा से अभेद और पर्याय की अपेक्षा से भेद मानते हैं। भेद और अभेद शब्द परस्पर विरोधी होने से निश्चित ही दोनों में विरोध होता है- ऐसा जो आप बौद्धों का कथन है, वह उचित नही है। पर्याय की अपेक्षा से भेद होने से और द्रव्य की अपेक्षा से अभेद होने से विभिन्न विरोधी रंगों से निर्मित चित्र के ज्ञान के समान उनमें कोई भी विरोध उत्पन्न नहीं होता है। जिस प्रकार एक ही चित्र में विभिन्न प्रकार के रंग होते हुए भी उनमें किसी प्रकार का विरोध नहीं होता है, उसी प्रकार घट के अस्तित्व और घट के विनाश में कथंचित-भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता होने से किसी प्रकार का विरोध नहीं है। यदि आप बौद्ध हमारी बात को स्वीकार नहीं करते हैं, तो हमारा तर्क है कि आपके उत्पत्ति में भी मिट्टी और घट में भेद-अभेद का विरोध तो आएगा ही, क्योंकि मिट्टी और घट में भेद भी है और अभेद भी है। वस्तुतः, पदार्थ एकान्तरूप से नाश स्वभाव वाला भी नहीं है और एकान्तरूप से क्षणिक-स्वभाव वाला भी नहीं है। वस्तु में केवल एक ही पक्ष नहीं है। विभिन्न रंगों के चित्र-ज्ञान की तरह उसमें अनेक पक्ष रहे हुए हैं, अतः, पदार्थ तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है।
आप बौद्धों के द्वारा वस्तु स्वयं के विनाश को निर्हेतुक मानने सम्बन्धी सिद्धांत के कारण आपका हेतु असिद्ध होता है, क्योंकि विनाश भी निरपेक्ष नहीं है, अपितु सापेक्ष ही है, क्योंकि विनाश के निमित्तभूत सहकारी-सामग्री के होने पर ही नाश होता है। पदार्थ प्रतिक्षण एकान्ततः विनाशशील भी नहीं है। उसमें द्रव्य या अपने उपादान की अपेक्षा से
112 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 729 113 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 729
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