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________________ 126 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा और घट उसका परिणाम है। प्रक्रिया और परिणाम को एकान्तरूप से न तो भिन्न कहा जा सकता है और न ही अभिन्न। घट का उपादान-कारण मिट्टी घट से अभिन्न है, तो दूसरी ओर घट के निमित्त-कारण कुम्हार, चक्र आदि घट से भिन्न भी हैं, अर्थात् कार्य और कारण में कथंचित्-भिन्नता है, तो कथंचित्-अभिन्नता भी है। वे न तो एकान्तरूप से भिन्न हैं और न ही एकान्तरूप से अभिन्न। सम्बन्ध षष्ठी-विभक्ति में होता है। संबंध तो दो वस्तुओं के होने पर ही होता है। दोनों के सर्वथा अभिन्न होने से दोनों एकरूप हो जाते हैं, अतः, वहाँ सम्बन्ध नहीं बन सकता है। कारण और कार्य में सर्वथा अभेद (अभिन्न) मानने पर यह मानना होगा कि जिस प्रकार घटादि की उत्पत्ति के पूर्व घटादि का अभाव है, उसी प्रकार उसकी उत्पादक कारणभूत सामग्री का भी अभाव मानना होगा, क्योंकि दोनों अभिन्न हैं। उस अभाव से किसी भी प्रकार का उत्पाद सम्भव होगा ही नहीं। यदि यहाँ बौद्ध अपना बचाव करने के लिए कदाचित यह दलील दें कि 'यह घट उत्पन्न हुआ इस कथन में हम, षष्ठीविभक्ति के बिना अभेदरूप से उत्पन्न हुआ- ऐसा कहते हैं, तो आप बौद्धों का यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि घटादि को अपनी उत्पत्ति की कारणभूत सामग्री से कथंचित्-भिन्न माने बिना वही, घटादि उत्पन्न हुआ है- ऐसा कथन भी नहीं कर सकते हैं। इसका कारण यह है कि घट और उसकी उत्पत्ति में सर्वथा अभेद मानने पर तो तिरोभूत और आविर्भूत- ऐसा भेद भी संभव नहीं होगा। ऐसे समय में, यह तिरोभूत घट ही आविर्भूत हुआ है- ऐसा भी आप नहीं कह सकते, अपित 'यह घट उत्पन्न हआ है, मात्र ऐसा ही कथन संभव होगा। घट को घट की उत्पत्ति के उपादान और निमित्त कारणों से अभिन्न मानने पर मृत्तिका (मिट्टी) में घट होना चाहिए, किन्तु मृत्तिका (मिट्टी) में घट है ही नहीं। घट मृत्तिका से भिन्न नहीं है, फिर भी जब तक घट की उत्पत्ति नहीं होती है, तब मिट्टी को मिट्टी ही कहेंगे, घट नहीं। मात्र मृत्तिका (मिट्टी) से भी घट का उत्पाद नहीं हो जाता है, अतः, मृत्तिका और घट में कथंचित्-भेद माने बिना घट का उत्पाद हुआ है- ऐसा कहना भी संभव नहीं है। इन दोषों के कारण से कार्य और कारण में एकान्त-अपृथभूत-पक्ष या अभेद-पक्ष भी उचित नहीं है।100 .. पुनः, घट और उसकी उत्पत्ति के कारणों को एकान्ततः भिन्न मानना भी उचित नहीं होगा। घटादि के उत्पत्तिरूप कार्य को कुम्हार, दंड, 108 रत्नाकरावतारिका, भाग IT, रत्नप्रभसूरि, पृ. 726. 727 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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