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________________ 124 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा उत्पन्न होते हैं, वे सब सत्-पदार्थ होते हैं- ऐसा हम मानते हैं, अर्थात् हम तो एकान्तअसतस्वभाव या एकान्तसतस्वभाव मानते ही नहीं हैं, हम तो अपेक्षा-भेद से दोनों पक्षों को स्वीकार करते हैं, अतः, आप जैनों का हमारा खण्डन करने का परिश्रम ही निष्फल सिद्ध होता है। आप जैन तो हम बौद्धों को एकान्तवादी कहकर हमारे मत का खण्डन करते हैं, जबकि हम (बौद्ध) तो सत्-असत्- दोनों पक्षों को मानते हैं, इस पर जैन-दार्शनिक कहते हैं कि विनाश (व्यय) और सत्ता (अस्तित्व) के दोनों विकल्पों से आपकी प्रस्तुति भी समान ही है, अर्थात् जो वस्तु अभी तक नष्ट नहीं हुई है, उसमें नाश का अभाव है, अर्थात् नाश असत् है और जो वस्तु नष्ट हो गई है, उसमें नाश का सदभाव है- ऐसा हम जैन भी आप बौद्धों के द्वारा माने हुए सिद्धान्त के समान ही कहते हैं, अतः, आप बौद्धों द्वारा पूर्व में हम पर लगाए गए आक्षेप से क्या लाभ होगा? हम तो एकान्त-नश्वर-स्वभाव वाले और एकान्त-अनश्वर-स्वभाव वाले दोनों पदार्थों में ही अपेक्षा-भेद से नाश (व्यय) मानते हैं, अर्थात् उत्पाद और नाश- दोनों में कारण-सामग्री मानते हैं, किन्तु नश्वर-पदार्थ स्वयं नाशवान होने से उनके नाश हेतु कारणभूत-सामग्री (नाशक हेतु) की क्या आवश्यकता हो सकती है ? इसी प्रकार, अनश्वर-पदार्थ सदा अनश्वर-स्वभाव वाले ही हैं, इन्द्र आदि भी उनके स्वभाव को बदल नहीं सकते हैं - ऐसा आक्षेप आप बौद्धों ने जैनों पर लगाया था, तो हम जैन तो वस्तु में ऐसी एकान्त-अनित्यता (नश्वरता) और एकान्त-नित्यता (अनश्वरता) मानते ही नहीं हैं।105 बौद्ध -- इस पर, बौद्ध-दार्शनिक पुनः कहते हैं कि जिस प्रकार आप जैन उत्पाद में सत और असत- दोनों पक्षों को मानते हैं, उसी प्रकार हम बौद्ध भी नाश में सत्-असत्- दोनों पक्ष मानते हैं, अर्थात् नाश को असत्-स्वभाव वाला और सत् को सत-स्वभावयुक्त- ऐसे दोनों पक्ष मानते हैं, तो फिर आप जैन हम बौद्धों पर कैसी आपत्ति उठा सकते हैं ? आप जैन हम पर एकान्तरूप से क्षणिकवादी होने का जो दोषारोपण करते हैं, हम बौद्ध भी आप जैनों पर उत्पाद के संबंध में अहेतुकवादी होने का ऐसा ही दोष लगा सकते हैं, जबकि आप जैन तो उत्पत्ति और नाश- दोनों को ही सहेतुक मानते हैं।106 105 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 726 106 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 726 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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