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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 123 है, उसको पुनः मारने या नष्ट करने से क्या लाभ ? यदि कारण उत्पन्न कार्य को ही करता है, तो फिर उस कारण को किसने उत्पन्न किया, फिर उसके कारण को किसने उत्पन्न किया ? इस प्रकार, तो अनवस्थादोष उपस्थित हो जाएगा, अतः, प्रथम-पक्ष उचित सिद्ध नहीं होता। ___ पुनः, यदि आप बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि मिट्टी आदि उपादान–कारण में घटादि कार्य असत्प हैं, वह असत्प कार्य, अर्थात् असत् घटादि पदार्थ मिट्टी, दंड, चक्र आदि कारणभूत सामग्री से उत्पन्न होते हैं, तो यह आपका दूसरा पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि मिट्टी आदि में घटादि पदार्थ असत-स्वभाव वाले ही हैं। असत्-स्वभाव वाले पदार्थ के स्वभाव को बदलना भी शक्य नहीं है, अस्तित्वरहित पदार्थ आकाश-पुष्प के समान हमेशा असत् ही होते हैं। सैकड़ों सहकारी कारणों के मिलने पर भी असत्-स्वभाव वाले को सत्-स्वभाव वाला नहीं बना सकते, अर्थात् असत् की उत्पत्ति वैसे ही संभव नहीं है, जैसे गधे के सींग का कंघा नहीं बन सकता।103 पुनः, यह बात आप बौद्धों द्वारा स्वीकृत होने से इसका आपके मत के साथ ही विरोध होगा। आपका यह पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि आपकी यह मान्यता है कि असत् कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, जबकि नैयायिक और वैशेषिक दर्शन यह मानते हैं कि मिट्टी आदि उपादान-कारण से असत् घटादि कार्य की उत्पत्ति सम्भव है। वे तो असत् कार्यवादी हैं, किन्तु आप बौद्धों को उनका असत्-कार्यवाद मान्य नहीं है। यदि आप बौद्ध-दार्शनिक नैयायिकों और वैशेषिकों के असत् कार्यवाद का विरोध करते हैं, तो या तो आप स्वयं सत्कार्यवादी हैं, या फिर आपने उनके असत्-कार्यवाद को स्वीकार कर लिया है, किन्तु यदि आप बौद्ध असत-स्वभाव वाले कार्य की उत्पत्ति को स्वीकारेंगे, तो आपके ही बौद्ध-मत (शून्यवाद) में विरोध उत्पन्न होगा, अर्थात् स्ववचन का विरोध होगा। दूसरे शब्दों में, स्वयं का सिद्धांत स्वयं के कथन से ही खंडित हो जाएगा।104 पुनः, यदि बौद्ध-दार्शनिक कदाचित् यह कहें कि जो-जो पदार्थ उत्पन्न नहीं होते हैं, वे सब असत्-पदार्थ होते हैं और जो-जो पदार्थ 103 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 725 104 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि. पृ. 725 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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