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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
यद्यपि बौद्ध-दार्शनिक विनाश के लिए सहकारी-कारणों को नहीं मानते हैं और नाश को निर्हेतुक बताते हैं, साथ ही नाश को निर्हेतुक सिद्ध करने के लिए ही जैनों के विरुद्ध अनेक कुतर्क प्रस्तुत करते हैं।101
जैन - बौद्धों के इस मत के खण्डन में हम जैनों का कथन हैं कि आप बौद्धों ने विनाश को निर्हेतुक सिद्ध करने के लिए जो-जो दलीलें (तर्क) पेश की हैं, वे समस्त दलीलें उत्पत्ति में भी समान रूप से लागू हो सकती हैं, किन्तु यह स्पष्ट ही है कि जब उत्पत्ति भी किन्हीं सहकारी-कारणों से ही होती है, तो विनाश भी किन्हीं सहकारी-कारणों से ही होगा। आप बौद्ध तो एकान्तरूप से मात्र विनाश के ही पक्षधर होने से एक चक्षु से देखते हैं और दूसरे चक्षु से नहीं देखते हैं। इससे तो आप एक आँख से दृष्टिहीन हैं- ऐसा ही सिद्ध होता है। वस्तुतः, यह एकपक्षीय दृष्टि समुचित नहीं है। आप बौद्धों से हम जैनों का प्रथम प्रश्न यह है कि आप बौद्ध यदि पदार्थ की उत्पत्ति में निमित्तभूत सहकारी-कारणों को मानते हैं, अर्थात् पदार्थ की उत्पत्ति को यदि सहेतुक मानते हैं, तो यह बताइए कि दंड, चक्र, चीवर आदि हेतुभूत कारणों से मिट्टी में से उत्पन्न होने वाला घट क्या सत्-स्वभाव वाला है ? क्या मिट्टी आदि उपादान-कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान घटादि पदार्थों की उत्पत्ति में सहकारी-कारण-सामग्री उत्पादक बनती है ? या मिट्टी आदि उपादान-कारण-सामग्री में अविद्यमान (अव्यक्त) स्वभाव वाले घटादि पदार्थों की उत्पत्ति में निमित्तभूत कारण-सामग्री उत्पादक बनती है। 102
___ यदि आप यह कहते हैं कि मिट्टी आदि उपादान–कारण में सत्-स्वभाव वाले, अर्थात् विद्यमान स्वभाव वाले घटादि पदार्थ को दंड, चक्र, चीवर आदि सहकारी-कारण उत्पन्न करते हैं, तो यह कथन तो उचित नहीं है। दंड, चक्र, चीवर आदि कारणों से उत्पन्न होने वाला घट तो प्रथमतः, अर्थात् पहले से ही सत् या विद्यमान ही है। दूसरे शब्दों में, घट का अस्तित्व तो पहले से ही मिट्टी में रहा हुआ है, अतः, यदि घट पहले से ही सत्ता में है, तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे मानी जाएगी ? जो पहले से ही निर्मित्त है, अर्थात् उत्पन्न हो चुका है, उसके उत्पन्न होने का क्या अर्थ है ? जो उत्पन्न है, अर्थात् सत्ता में है, उसको पुन: उत्पन्न करने से क्या लाभ ? इसी प्रकार, जो पहले से ही मर चुका है या नष्ट हो चुका
101 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 724 102 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 724
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