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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
और निर्विकल्पक, भ्रान्त और अभ्रान्त, पूर्वक्षण की अपेक्षा से कार्यरूप और उत्तर-क्षण की अपेक्षा से कारणरूप मानकर परस्पर विरोधी उभयात्मक – स्वरूप को स्वयं स्वीकार करते ही हैं, किन्तु दूसरी ओर हम जैनों द्वारा माने गए भेदाभेद में परस्पर विरोध कहकर दोष दिखाते हैं, यह आपका दुःसाहस ही है। इस प्रकार, क्रम और अक्रम द्वारा अर्थक्रिया आपके एकांत-क्षणिकवाद के विरोधी हमारे क्षणिकाक्षणिकवाद या नित्यानित्यवाद में भी संभव होती है, इसलिए 'जो सत् होता है, वह अर्थक्रियाकारी होता है- आपके इस सिद्धान्त में संदिग्धानेकान्तिक- दोष सिद्ध होता है। 80
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पुनः, रत्नप्रभसूरि बौद्धों के एकान्त-क्षणिक पक्ष की समीक्षा करते हुए कहते हैं- आप (बौद्ध) समस्त पदार्थों को एकान्त-क्षणिक मानते हैं, किन्तु पदार्थ में अपेक्षाभेद से द्रव्यत्व अर्थात् ध्रौव्यत्व-गुण रहा हुआ है, जिसको जन्म से चक्षुहीन रहने के कारण आप देखते नहीं हैं। आपका यह तर्क कि क्रम और अक्रम द्वारा एकान्त - क्षणिक में अर्थक्रिया संभव नहीं होती है, विरुद्धहेत्वाभास - दोष से तथा संदिग्धानेकान्तिक- दोष से ग्रस्त है। क्रम दो प्रकार का होता है- एक, देश-क्रम तथा दूसरा, काल-क्रम | देशक्रम उसे कहते हैं- सरोवर के जल में अतिशय चंचल तरंगों के ऊपर तैरते हुए रमणीय हंसों की पंक्तिबद्ध श्रेणी 'क्रम' कहलाती है तथा मन को आल्हादित करने वाले भिन्न-भिन्न स्थानों पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए हंस- युगलों का क्रम 'देशक्रम' कहलाता है। इसी प्रकार, एक ही घट में अनुक्रम से मधु, महुआ, तेल, घृत, दूध, पानी आदि एक के बाद एक क्रमशः भिन्न-भिन्न पदार्थों के धारण करने की जो क्रिया होती है, उसे कालक्रम कहते हैं, किन्तु आप बौद्धों के एकान्त - क्षणिकवाद में न तो देशक्रम संभव है और न कालक्रम ही संभव है, क्योंकि कोई भी पदार्थ या तो किसी देश (स्थान) क्रम से अथवा किसी कालक्रम से ही कोई क्रिया कर सकता है, किन्तु किसी क्रिया के करते ही जो पदार्थ नष्ट हो गया हो, उस पदार्थ में देश या काल के अनुक्रम से कोई क्रिया करने का गुण तो रहा ही नहीं है । तात्पर्य यह है कि पदार्थ को एकान्त-क्षणिक मानने वाले आप बौद्धों के अनुसार तो किसी एक देश अथवा काल में रहा हुआ पदार्थ, एक क्रिया करके नष्ट हो गया हो, तो वह पुनः उसी देश और उसी काल में कौनसी क्रिया करेगा ? जब क्षणिक - एकान्तवाद मूल द्रव्य ही समाप्त हो गया, तो
80 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 715
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