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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
भिन्न अपेक्षाओं से भेद और अभेद- दोनों होने में किसी भी प्रकार का कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है। प्रत्येक द्रव्य पर्याय की अपेक्षा से भेदरूप है और द्रव्य की अपेक्षा से अभेदरूप है। अपेक्षा -भेद से विधि और निषेध ( प्रयोग - अप्रयोग ) करने पर कोई विरोध उत्पन्न नहीं हो जाता है। दो भिन्न अपेक्षाओं से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले कोई भी कथन विरोधी नहीं हो जाते हैं । कथन में परस्पर विरोध होने पर भी यदि एकान्ततः विरोध ही समझ लिया जाएगा, तो फिर अतिप्रसंग (अतिव्याप्ति) दोष उत्पन्न हो जाएगा। परस्पर-विरोधी कथन को इस प्रकार, समझा जा सकता है। 78
"अत्यन्त दुःख हृदय को छेद देता है, किन्तु फिर भी हृदय के दो टुकड़े नहीं करता, आकुल-व्याकुल व्यक्ति का शरीर मूच्छित हो जाता है, किन्तु चेतना का नाश नहीं होता, अंदर की आग शरीर को जला देती है, किन्तु फिर भी देह राख नहीं बन जाती। हम जो चाहते हैं, भाग्य उसको विनष्ट कर देता है, अर्थात् हमारे जीवन के लक्ष्य को समाप्त कर देता है, किन्तु जीव को समाप्त नहीं कर देता ।" इन उदाहरणों में एक ही व्यक्ति में 'नञ्' का प्रयोग और अप्रयोग (विधि और निषेध) दोनों के होने से विरोध का प्रसंग तो है। वस्तुतः, इस प्रकार के श्लोक के अर्थ में भी विरोध हैऐसा तो मानना ही पड़ेगा, जैसे- इस श्लोकार्थ के चारों पदों में वर्णित पूर्व-भाग में 'नञ्' का प्रयोग नहीं किया गया है, किन्तु उत्तर - भाग में 'नञ्' का प्रयोग किया गया है, अर्थात् कथन की अपेक्षा से भिन्नता हो सकती है, किन्तु विरोध नहीं होता है, व्यतिरेक-अव्यतिरेक (भेद - अभेद) में विरोध नहीं होता है । "
हम जैन द्रव्य और पर्याय के भेदाभेद - स्वरूप का कथन इस प्रकार से करते हैं नित्य-पदार्थ से किसी पर्याय - विशेष के भेद का कथन जिस रूप में करते हैं, उसी रूप में उसके अभेद का कथन नहीं करते हैं। हम जैन, 'यह द्रव्य है' 'यह इसकी पर्याय है' अर्थात् यह मृत्तिका ( द्रव्य) घटाकार (पर्याय) रूप है - इस प्रकार, द्रव्य और पर्याय के भेद का कथन करते हैं, किन्तु जब द्रव्य और पर्याय के अभेद का कथन करना हो, तो चाहे द्रव्य हो या पर्याय हो - दोनों के लिए 'यह वस्तु है ऐसा अभेदरूप कथन करते हैं। यहाँ बौद्धों पर आक्षेप करते हुए जैन- दार्शनिक रत्नप्रभ कहते हैं कि आप बौद्ध - दार्शनिक भी एक ही विज्ञान-क्षण को सविकल्पक
78 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 714 79 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 714, 715
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