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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 109 फिर पदार्थ में अर्थक्रिया का क्रम कैसे बनेगा ? अर्थात् एकान्त-क्षणिकवाद में क्रम नहीं बनेगा।" पुनः, जैन कहते हैं कि बौद्धों के एकान्त-क्षणिकवाद में अक्रम भी घटित नहीं हो सकता है, 'योगपद्य' अर्थात् एक ही साथ अर्थक्रिया होती है, ऐसा आपका यह पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्षणिक और निरंश है, वह पदार्थ अपने निज स्वभाव से स्वयं को उत्पन्न करने योग्य बनाता है- आप बौद्धों का यह कथन भी उचित नहीं है। क्या वह पदार्थ अपने उसी स्वभाव से, उसी समय, उस पदार्थ को तथा उसके ज्ञान को उत्पन्न करता है, अर्थात् जिस स्वभाव से, जिस समय, ज्ञान उत्पन्न करता है, उसी स्वभाव से, उसी समय, पदार्थ के आकार को भी उत्पन्न करता है? यह मत भी उचित नहीं है, क्योंकि पदार्थ के आकार को और उस आकार के ज्ञान को उत्पन्न करने में दो भिन्न स्वभाव अपेक्षित हैं ? कोई भी पदार्थ अपने निजी स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि उत्पन्न होने की वैसी योग्यता उस पदार्थ में उपादान-रूप में रही हुई है। उदाहरणस्वरूप, कोई घट है। अब यदि यह घट, घट के रूप में उत्पन्न होता है, तो सर्वप्रथम उसका आकार उत्पन्न होगो, अर्थात् हमारे मानस में घटाकार प्रतिबिम्बित होगा। उसके पश्चात्, 'यह घट है- ऐसा ज्ञान उत्पन्न होगा। यहाँ जैन बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आप पदार्थ को क्षणिक और निरंश- दोनों ही मानते हैं, तो फिर यह बताइए कि पदार्थ, पदार्थ का आकार और उसका ज्ञान- ये तीनों एक ही समय में कैसे संभव होंगे? उदाहरणार्थ, घट उत्पन्न होते समय घटाकारता को धारण करता है, तो वह रूपक्षण है और यह घट है- ऐसा भी ज्ञान करता है, वह ज्ञानक्षण है। अब आप यह बताइए कि हमारे ज्ञान में घटाकार का जो बोध हुआ, वह घटाकार और ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न हैं या एक ही हैं। यदि आप घटाकार और उसके ज्ञान को एक साथ होना मानते हैं, तो दोनों का बोध एक साथ कैसे होगा? क्योंकि पदार्थ, पदार्थ का आकार और उसका ज्ञान- इनको एक साथ मानने से तो आपका क्षणिकवाद कहाँ रहा ? जब पदार्थ के आकार का बोध हुआ, तब वह पदार्थ तो नष्ट हो गया और जो नष्ट हो गया, उसका ज्ञान कैसे होगा? अतः, प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'रूपक्षण' और 'ज्ञानक्षण का स्वभाव एक ही है ? या भिन्न-भिन्न है ? प्रथम-पक्ष के समर्थन में यदि आप यह कहते हैं कि जिस स्वभाव से पदार्थ उत्पन्न होता 81 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 715, 716 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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