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Here is the English translation, preserving the Jain terms:
The Paryāptiṭṭha (the lowest limit of the Arihantamupayaṃpiṭṭha (the highest limit of the Arihants) is said to be the Aṃjiriddhakarapaṭhamāusu (the lowest limit of the Māgadhīs). The Saṃjara (the Māgadhī's) utkṛṣṭa (highest) āyuḥ (lifespan) is said to be the Tāntrasāsamaraṇamādyaviyaha (the lowest limit of the Vikrīṣṭhiāsarīvisāsaṃśaha). The Viśrahādīhāusmāī (the lowest limit of the Viśrahādīs) are the graha (planets) that are the Horaṃdavivaraśahāvihoda (the lowest limit of the Horaṃdavivaras) of the Tīmirahotyihāharaṇa (the lowest limit of the Tīmirahotyihas). The Iparakahātiahohotiiṃḍakaciva (the lowest limit of the Iparakahātiahohotis) are the Jñāśethalāī (the lowest limit of the Jñāśethas) that are the Pahraṇakaḍihiṇihālamataṇalavalagati (the lowest limit of the Pahraṇakaḍihiṇihālas) of the Sūalavāśvasamililiyā (the lowest limit of the Sūalavāśvas).
The Akamisuradahavayaṃcavi (the lowest limit of the Akamisuras) are the Solhaḍaṇavapañcaviṣṇuravipāḍherajagappahādhara (the lowest limit of the Solhaḍaṇavapañcaviṣṇuravis) of the Vivaratakhaḍarasatriha (the lowest limit of the Vivaratakhaḍaras). The Asaragharahivanasahirāmara (the lowest limit of the Asaragharahivanasahiras) are the Jñāśāmadhāīcārāsālakara (the lowest limit of the Jñāśāmadhāīcārās) that are the Cārilakhāśvapahlavakārītāsāsasāiha (the lowest limit of the Cārilakhāśvapahlavas) of the Dāvasamādaṇiyaṭaḍiṇāmahayāsāṇalakāmākhara (the lowest limit of the Dāvasamādaṇiyaṭaḍiṇāmahayāsāṇalakāmās).
The Ekacchāhālakāīcchattiṃriarakappattramāyaṇamayakesarilakṇavālasāhiyadhārāhāvāsāhasamārakamā (the lowest limit of the Ekacchāhālakāīcchattiṃriarakappattras) are the Koḍiṭasaṇḍārilakśappiṃḍākārahauti (the lowest limit of the Koḍiṭasaṇḍāris) of the Paccharakasāvaṇāmapannāścādahamālasahasaṇirāīvāsāra (the lowest limit of the Paccharakasāvaṇāmapannās). The Savisasaīcīṇāveṇapaṇavanimyosaīyavaramiparimalasiṃrihāraṇavāṇagayaṇayalajālāhī (the lowest limit of the Savisasaīcīṇāveṇapaṇavanimyosaīyavaras) are the Saritāraṇavitaraṇayaraṃcamaṇīlae (the lowest limit of the Saritāraṇavitaraṇayaras) that are the Hotigaṇathasavāīādhānājāyaṇasāmanttrātrā (the lowest limit of the Hotigaṇathasavāīādhānās).
The age mentioned here is said to be the lowest limit of the Ariṣṭās. The age that is the highest limit of the Ariṣṭās is said to be the lowest limit of the Māgadhīs. The complete (highest) lifespan of the distressed Māgadhī is described as the ten, eight, five, sixteen, two, nine and then five types of devas in the Mādhavī narak bhūmi.
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पवियापिठ तजिअरिहामुपयंपिठ अंजिरिडहकिरपठमाउसु तंमधविहेदेसिअचिरा
साजरउमद्यविहड्तवियहे तंत्रासासमरणमाद्यवियह विक्रिस्थिासरीविसासंशह। विश्रहादीहाउस्माई होतिग्रहोहोरंदविवरशहाविअहोदामद तिमिरहोत्यिहाहारण इपरकहातिअहोहोतिइंडकचिव ज्ञशेतहलाई पहरण कडिहिणिहालमतणलवल गति सूअलवाश्वसमिलिया। अकमिसुरदहवयंचविवि सोलहड़णवपंचविष्ण रवि पाढेरजगप्पहाधरविहे विवरतखडरसत्रिह असरघरहिवनसहिरामरकज्ञा शामधाईचारासालकरचारिलखाश्वपहलवणकारितासाससाइह दावसमा दथणियतडिणामहयासाणलकामाखरामह एकछाहालकाईछहत्तरिअरकपत्रमा यणमयकेसरिलकणवलसाहियधारहावासाहसमारकमा कोडिटसनडारि लकशपिंडाकारहौतिपश्चरकसावणामपन्नाश्चादहमालहसहसणिराईवासार सविससईचीणावेणपणवनिम्योसईयवरामिपरिमलसिरिहारण वाणगयणयलजलाही सरितारण वितरणयरंचमणीलए होतिगणतहसवाईअाधना जायणसामन्त्रात्रा
पणे
२१
आयु कही गयी है वह अरिष्टा की जघन्य आयु कही गयी है। जो आयु अरिष्टा की उत्तम है वही मघवा की अचिरायु ( जघन्य) कही गयी है। दु:ख से सन्तप्त मघवा की जो पूरी (उत्कृष्ट) आयु है, वह माधवी नरक भूमि मैं दस, आठ, पाँच, सोलह, दो, नौ और फिर पाँच प्रकार के देवों का वर्णन करता हूँ। प्रचुर रतिरस में आसन्नमरण ( जघन्य आयु) है। इस प्रकार (ऊपर से) नीचे-नीचे विक्रिया शरीर की रचना और दीर्घ की स्थितिवाली इस रत्नप्रभा भूमि के विवर के भीतर (खर और पंक भाग में) अवधिज्ञानियों या सर्वज्ञों के आयुवाले बिल होते जाते हैं। नीचे-नीचे बड़े-बड़े बिल होते हैं, नीचे-नीचे सघन अन्धकार हो जाता है। लिए प्रत्यक्ष असुरवरों के चौसठ लाख एवं नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं। सुपर्णकुमारों के प्रचुर नीचे-नीचे दुर्दर्शनीय युद्ध होता है। नीचे-नीचे तीव्र दुःख होता है।
आभा से व्याप्त बहत्तर लाख, द्वीपकुमारों, उदधिकुमारों, स्तनितकुमारों, विद्युत्कुमारों, दिक्कुमारों और घत्ता-युद्ध करते हुए उनके करोड़ों शस्त्रों से दलित शरीरकण मिले हुए पारद कणों की तरह प्रतीत अग्निकुमारों के नौ लाख साठ हजार भवन हैं। इस प्रकार भवनवासियों के कुल मिलाकर सात करोड़ बहत्तर होते हैं ॥२०॥
लाख प्रत्यक्ष भवन हैं। भवनवासी देवों का इस प्रकार कथन किया गया है। भूतों और राक्षसों, वीणा, वेणु और प्रणव के निर्घोषों से युक्त सोलह और चौदह हजार आवास विशेष होते हैं। दूसरे विशिष्ट तथा विमल लक्ष्मी को धारण करनेवाले देव बन, आकाशतल, समुद्र और सरोवरों के किनारों पर निवास करते हैं। व्यन्तरों
के सुन्दर निवास गिनती करने पर संख्यातीत हैं। For Private & Personal use only
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