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टिप्पणियाँ
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त. 'धम्मपिवासिया ५' से 'धम्मपिवासिया पुण्यपिवासिया सग्गपिवासिया मोक्खपिवासिया धम्मपुण्णसग्गमोक्खपिवासिया' पढ़ना चाहिए (कं.
थ. 'पुप्फ ५' से 'पुप्फेणं वत्थेणं गंधेणं मल्लेणं अलंकारेणं' पढ़ना चाहिए (कं. ६६)।
द. 'सिज्झिहिइ ५' से 'सिज्झिहिइ बुज्झिहिह मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिह' पढ़ना चाहिए (कं. १४४) ।
घ. 'इड्ढी ६' से 'इड्ढी जुई जसो बलं वीरियं पुरिसक्कारपरक्कमे 'पढ़ना चाहिए किं. ११३)।
सूत्रों में 'समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी' ऐसा वाक्य आता है वहाँ ‘मिणे सु हत्थी' ऐसा पदच्छेद होना चाहिए अर्थात् जिनों में -वीतरागों में हस्ती समान । 'जिणे सुहत्थी' ऐसा प्रथमान्त रखने में 'सुहत्थी' पद का कोई विशेष अर्थ नहीं दिखता और यह विशेषण उचित अर्थ का बोध नहीं कराता क्योंकि भगवान महावीर न तो शुभार्थी है और न ही सुखार्थी जैसा कि टीकाकारों ने समझाया हैं। अतः सूत्रों में प्रयुक्त 'पुरिसवरगंधहत्थी' पद के साथ तुलना करने पर 'जिणेसु हत्थी' पदच्छेद ही संगत प्रतीत होता है (देखिए कं. ७३)।।
__ अध्ययन के प्रारम्भ में 'उक्खेवो' शब्द हो वहाँ द्वितीय अध्य. यन के प्रारम्भ में दी गयी पूरो कंडिका (नं. ९१) अध्ययन की संख्या बदलकर पढ़नी चाहिए (प्रथम और द्वितीय अध्ययन को छोड़कर) ।
___अध्ययन के अन्त में 'निक्खेवो' शब्द प्रयुक्त है। वहाँ पर अध्ययनों की संख्या बदलते हुए ‘एवं खलु, जम्बू ! समणेणं जाव उवासग. दसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि' इस प्रकार पढ़ना चाहिए।
आजीविक सम्प्रदाय के नेता गोशाल और उनके सिद्धान्त का वर्णन भगवतोसूत्र के पन्द्रहवें शतक, सूत्रकृतांग के दूसरे श्रतस्कन्ध के छठे अध्ययन और दोघनिकाय के सामञफलसुत्त आदि में भी मिलता है । जिज्ञासु पाठक वहाँ से पढ़ सकते हैं।
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