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त्रिसप्ततितमं पर्व
४३५ तदाखिलामराधीशाः समागत्य व्यधुर्मुदा । स्वर्गावतरणे पित्रोः कल्याणाभिषवोत्सवम् ॥ ८८॥ स्वर्गलोकञ्च तद्वहमतिशेते स्म सम्पदा । किं करोति न कल्याणं कृतपुण्यसमागमः ॥ ८९ ॥ नवमे मासि सम्पूर्णे पौषे मास्यसिते सुतः। पक्षे योगेऽनिले प्रादुरासीदेकादशीतिथौ ॥ ९ ॥ तदा निजासनाकम्पाद् ज्ञात्वा तीर्थकरोदयम् । सौधर्मप्रमुखाः सर्वे मन्दराचलमस्तके ॥ ११ ॥ जन्माभिषेककल्याणपूजानिवृत्त्यनन्तरम् । पार्थाभिधानं कृत्वास्य पितृभ्यां तं समर्पयन् ॥ १२ ॥ नेम्यन्तरे खपञ्चस्वराग्न्यष्टमितवत्सरे । प्रान्ते हन्ता कृतान्तस्य तदभ्यन्तरजीवितः ॥ १३ ॥ पार्श्वनाथः समुत्पन्नः शतसंवत्सरायुषा । बालशालितनुच्छायः सर्वलक्षणलक्षितः ॥ १४ ॥ नवारनितनूत्सेधी लक्ष्मीवानुग्रवंशजः । षोडशाब्दावसानेऽयं कदाचिन्नवयौवनः ॥ १५ ॥ क्रीडार्थ स्वबलेनामा निर्यायायावहिः पुरम् । आश्रमादिवने मातुर्महीपालपुराधिपम् ॥ ९६ ॥ पितरं तं महीपालनामानममराचिंताः । महादेवीवियोगेन दुःखातापसदीक्षितम् ॥ १७ ॥ तपः कुर्वन्तमालोक्य पञ्चपावकमध्यगम् । तत्समीपे कुमारोऽस्थादनत्वैनमनादरः ॥ ९८॥ अविचार्य तदाविष्टः कोपेन कुमुनिर्गुरुः । कुलीनोऽहं तपोवृद्धः पिता मातुर्नमस्क्रियाम् ॥ ९९ ॥ अकृत्वा मे कुमारोऽज्ञः स्थितवान्मदविह्वलः। इति प्रक्षोभमागत्य प्रशान्ते पावके पुनः ॥ १० ॥ निक्षेप्तुं स्वयमेवोच्चैरुक्षिप्य परशुं धनम् । भिन्दनिन्धनमज्ञोऽसौ मा भैत्सीरत्र विद्यते ॥ १० ॥ प्राणीति वार्यमाणोऽपि कुमारणावधित्विषा । अन्वतिष्ठदयं कर्म तस्याभ्यन्तरवतिनौ ॥१०॥
उसी समय समस्त इन्द्रोंने आकर बड़े हर्षसे स्वर्गावतरणकी वेलामें भगवानके माता-पिताका कल्याणाभिषेक कर उत्सव किया।८।। उस समय महाराज विश्वसेनका राजमन्दिर अपनी सम्पदाके द्वारा स्वर्गलोकका भी उल्लङ्घन कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवोंका समागम कौन-सा कल्याण नहीं करता है ? अथोत् सभी कल्याण करता है ।।८।। नौ माह पूर्ण होनेपर पौषकृष्ण एकादशीके दिन अनिलयोगमें वह पुत्र उत्पन्न हुआ।। ६०॥ उसी समय अपने आसनोंके कम्पायमान होनेसे सौधर्म आदि सभी इन्द्रोंने तीर्थंकर भगवान्के जन्मका समाचार जान लिया तथा सभीने आकर सुमेरु पर्वतके मस्तक पर उनके जन्मकल्याणककी पूजा की, पार्श्वनाथ नाम रक्खा और फिर उन्हें माता-पिताके लिए समर्पित कर दिया ॥६१-९२ ॥ श्री नेमिनाथ भगवान्के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जानेपर मृत्युको जीतनेवाले भगवान पार्श्वनाथ उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु सौ वर्षकी थी जो कि उसी पूर्वोक्त अन्तरालमें शामिल थी। उनके शरीरकी कान्ति धानके छोटे पौधेके समान हरे रङ्गकी थी, वे समस्त लक्षणोंसे सुशोभित थे, नौ हाथ ऊँचा उनका शरीर था. वे लक्ष्मीवान थे और उग्र वंशमें उत्पन्न हुए थे, सोलह वर्ष बाद जब भगवान नव यौवनसे युक्त हुए तब वे किसी समय क्रीड़ा करनेके लिए अपनी सेनाके साथ नगरसे बाहर गये । वहाँ आश्रमके वनमें इनकी माताका पिता, महीपाल नगरका राजा महीपाल अपनी रानीके वियोगसे तपस्वी होकर तप कर रहा था, वह पश्चाग्नियोंके बीच में बैठा हुआ तपश्चरण कर रहा था। देवोंके द्वारा पूजित भगवान् पार्श्वनाथ उसके समीप जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही अनादरके साथ खड़े हो गये । यह देख, वह खोटा साधु, बिना कुछ विचार किये ही क्रोधसे युक्त हो गया । वह मनमें सोचने लगा कि 'मैं कुलीन हूँ-उच्च कुलमें उत्पन्न हुआ हूँ, तपोवृद्ध हूं-तपके द्वारा बड़ा हूँ, और इसकी माताका पिता हूं फिर भी यह अज्ञानी कुमार अहंकारसे विह्वल हुआ मुझे नमस्कार किये बिना ही खड़ा है। ऐसा विचार कर वह अज्ञानी बहुत ही क्षोभको प्राप्त हुआ और बुझती हुई अग्निमें डालनेके लिए वहाँ पर पड़ी हुई लकड़ीको काटनेकी इच्छासे उसने लकड़ी काटनेके लिए अपना मज फरसा ऊपर उठाया ही था कि अवधिज्ञानी भगवान् पार्श्वनाथने 'इसे मत काटो, इसमें जीव है। यह कहते हुए मना किया परन्तु उनके मना करनेपर भी उसने लकड़ी काट ही डाली। इस कर्मसे उस लकड़ीके भीतर रहनेवाले सर्प और सर्पिणीके दो दो टुकड़े हो गये। यह देखकर सुभौम कुमार
१ मनादरम् ग०,०।
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