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## The Eighth Chapter of the Sixty-Fourth Book **303** She said, "I will fast," and having thus resolved, she thought, "My mother, though not my birth mother, is grieving for me as if I were her own." **36** She bowed low and looked at her with affection, as if her own daughter were looking at her at the time of her installation. **361** "This sweet sight of this virtuous woman is burning me from all sides," thought Mandodari, consumed by grief. **362** Overwhelmed with sorrow, she entered the city, humbled by her grief. Then, from the Sisipā tree, the messenger, Hanuman, came, assuming the form of a monkey by the power of the Plavaga Vidya. **363** He put the guards of the forest to sleep with his magic and stood before Sita. **364** Bowing to her, the monkey narrated his entire story and said, "By the order of my master, Lord Rama, I have brought this casket containing a letter." **365** He placed the casket before her. Seeing the monkey, Sita doubted, "Is this the wicked Ravana, assuming a magical form?" **366** As she was thus doubtful, her eyes fell upon the ring adorned with the Srivatsa mark and engraved with the letters of her husband's name. **367** "This too seems like his magic," she thought. "Who knows? Perhaps this letter is also his." **368** She broke the seal, recognizing it as the great king's, and read the letter. After reading it, her grief vanished, and she looked at him with affection. **369** "You have kept me alive," she said. "Therefore, you are in the place of my father, you are like my father." **370** Hanuman, covering his ears, replied, "Mother, you are the great queen of my master. Do not entertain any other thoughts. Though I have the power to take you today, I do not have my master's order. King Rama will come himself, kill Ravana, and take you with him, along with his wealth. His courage will spread his fame throughout the three worlds." **371-372** "Therefore, eat something to sustain your body," he said. **373**
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________________ अष्टषष्टं पर्व ३०३ स्यजामीत्यवदत्सीताप्येतछू स्वावधार्य च । ममामातापि मातेव महःखे दुःखिताऽजनि ॥ ३६.॥ इति चिरो विनम्यैतचरणौ स्निग्धमैक्षत । मञ्जुषास्थापनाकाले मत्सुताया इवेक्षितम् ॥ ३६१ ॥ एतन्मां मधुरं सत्याः सन्तापयति सर्वतः । इति प्रलयमापना तदा रावणवल्लभा ॥ ३६२ ॥ भाप्तैदुःखेन तदुःखाद् विनीता प्राविशत्पुरम् । शिशिपास्थस्ततोऽभ्येत्य दूतः प्लवगविद्यया ॥ ३६३ ॥ परावृत्या कपमा स्वयं निद्रात्यभिद्रतान् । विधाय रक्षकान् देव्याः पुरस्तात्समवस्थितः ॥ ३६॥ प्रणम्य सां स्ववृत्तान्तं सर्व संश्राव्य वानरः । रामस्वामिनिदेशेन लेखगर्भकरण्डकम् ॥ ३६५ ॥ मयाऽऽनीतमिदं देवीत्यग्रेऽस्याः स तदक्षिपत् । तं दृष्टा किमयं मायाविग्रहो रावणोऽधमः ॥ ३६६ ॥ शङ्कमानेति सा वीक्ष्य तत्र श्रीवत्सलान्छनम् । रत्नाङ्गलीयकं चात्मपतिनामाक्षराङ्कितम् ॥ ३६७ ॥ ममेदमपि भात्येव मायेवास्य दुरात्मनः । को जानाति तथाप्येतत्पत्रं तस्यैव वा भवेत् ॥ ३६८॥ महाग्यादिति निभिद्य मुद्रां उपत्रमवाचयत् । ४वाचनानन्तरं वीतशोकया स्निग्धवीक्षया ॥ ३६९ ।। जीविताहं त्वया स्थानमधितिष्ठसि मे पितुः । इत्युक्तः सीतया को पिधाय पवनात्मजः ॥ ३७०॥ मत्स्वामिनो महादेवी मातर्नेहान्यकल्पना । त्वां नेतं मम सामर्थ्यमद्यैवास्ति पतिव्रते ॥ ३७१ ॥ नास्ति भट्टारकस्याज्ञा स्वयमेव महीपतिः । हत्वैत्य रावणं तस्य त्वां नेष्यति सह श्रिया ॥ ३७२ ॥ तत्साहसेन तत्कीतिाप्यास्ताम् । भुवनत्रयम् । ततः शरीरसन्धारणार्थमाहारमाहर ॥ ३७३ ।। चाहिये । यह सब कहने के बाद मन्दोदरीने यह भी कहा कि यदि मेरे वचन नहीं मानती है तो मैं भी भोजन छोड़े देती हूं। मन्दोदरीके वचन सुनकर सीताने विचार किया कि यद्यपि यह मेरी माता नहीं है तथापि माताके समान ही मेरे दुःखसे दुःखी हो रही है। ऐसा विचारकर वह मन ही मन मन्दोदरीके चरणोंको नमस्कारकर उनकी ओर बड़े स्नेहसे देखने लगी। उसे ऐसी देख मन्दोदरी सोचने लगी कि मंजूषामें रखते समय जिस प्रकार मेरी पुत्री मेरी ओर देख रही थी उसी प्रकार आज यह सीता मेरी ओर देख रही है। इस पतिव्रताका यह मधुर दर्शन मुझे सब ओरसे सन्तप्त कर रहा है। इस प्रकार शोकको प्राप्त हुई मन्दोदरीने सीताके दुःखसे विनम्र हो आप्तजनोंके साथ साथ नगरमें बड़े दुःखसे प्रवेश किया। तदनन्तर उसी शिशपा वृक्षपर बैठे हुए दूत अणुमान्ने प्लवग नामक विद्याके द्वारा अपना बन्दर जैसा रूप बना लिया और वनकी रक्षा करनेवाले पुरुषोंको निद्रासे युक्तकर वह स्वयं सीतादेवीके आगे जा खड़ा हुआ ॥ ३५६-३६४॥ वानर रूपधारी अणुमान्ने सीताको नमस्कारकर उसे अपना सब वृत्तान्त सुना दिया और कहा कि मैं राजा रामचन्द्रजीके आदेशसे, जिसके भीतर पत्र रखा हुआ है ऐसा यह एक पिटारा ले आया हूँ। इतना कह उसने वह पिटारा सीता देवीके आगे रख दिया। वानरको देखकर सीताको सन्देह हुआ कि क्या यह मायामयी शरीरको धारण करनेवाला नीच रावण ही है? ॥३६५-३६६। इस प्रकार सीता संशय कर रही थी कि उसकी दृष्टि श्रीवत्सके चिह्नसे चिह्नित एवं अपने पतिके नामाक्षरोंसे अङ्कित रत्नमयी अंगूठीपर जा पड़ी। उसे देख वह फिर भी संशय करने लगी कि मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह दुष्ट रावणकी ही माया है। क्या है ? यह कौन जाने, परन्तु यह पत्र तो उन्हींका है और मेरे माग्यसे ही यहाँ आया है ऐसा सोचकर उसने पत्रपर लगी हुई मुहर तोड़कर पत्र बाँचा । पत्र बाचते ही उसका शोक नष्ट हो गया। वह स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखकर कहने लगी कि तूने मुझे जीवित रक्खा है अतः मेरे पिताके पदपर अधिष्ठित है-मेरे पिताके समान है। जब सीताने उक्त वचन कहे तब पवनपुत्र अणुमान्ने अपने कान ढककर उत्तर दिया कि हे माता! आप मेरे स्वामीकी महादेवी हैं, इसपर अन्य कल्पना न कीजिये । हे पतिव्रते ! यद्यपि तुम्हें आज ही ले जानेकी मेरी शक्ति है तथापि स्वामीकी आज्ञा नहीं है। राजा रामचन्द्रजी स्वयं ही आकर रावणको मारेंगे और उसकी लक्ष्मीके साथ साथ तुम्हें ले जावेगें। उस साहसपूर्ण कार्यसे उनकी कीर्ति तीनों लोकोंमें व्याप्त होकर रहेगी १ तद्दृष्ट्वा म०, ल०। २- भवत् ल०, म०। ५ व्याप्यताम् ल.। ३ पत्रं त्ववाचयत् ल०। ४ बचनानन्तरं ल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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